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Thursday 3 April 2014

१३ से १८

भाग 13: भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम 301. व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता--इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र व्यापार, वाणिज्य और समागम अबाध होगा। 302. व्यापार, वाणिज्य और समागम पर निर्बंधन अधिरोपित करने की संसद की शाक्ति--संसद विधि द्वारा, एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग के भीतर व्यापार, वाणिज्य या समागम की स्वतंत्रता पर ऐसे निर्बंधन अधिरोपित कर सकेगी जो लोक हित में अपेक्षित हों। 303. व्यापार और वाणिज्य के संबंध में संघ और राज्यों की विधायी शक्तियों पर निर्बंधन--(1) अनुच्छेद 302 में किसी बात के होते हुए भी, सातवीं अनुसूची की सूचियों में से किसी में व्यापार और वाणिज्य संबंधी किसी प्रविष्टि के आधार पर, संसद को या राज्य के विधान-मंडल को, कोई ऐसी विधि बनाने की शक्ति नहीं होगी जो एक राज्य को दूसरे राज्य से अधिमान देती है या दिया जाना प्राधिकृत करती है अथवा एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच कोई विभेद करती है या किया जाना प्राधिकृत करती है। (2) खंड (1) की कोई बात संसद को कोई ऐसी विधि बनाने से नहीं रोकेगी जो कोई ऐसा अधिमान देती है या दिया जाना प्राधिकृत करती है अथवा कोई ऐसा विभेद करती है या किया जाना प्राधिकृत करती है, यदि ऐसी विधि द्वारा यह घोषित किया जाता है कि भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में माल की कमी से उत्पन्न किसी स्थिति से निपटने के प्रयोजन के लिए ऐसा करना आवश्यक है। 304. राज्यों के बीच व्यापार, वाणिज्य और समागम पर निर्बंधन--अनुच्छेद 301 या अनुच्छेद 303 में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा,-- (क) अन्य राज्यों 1[या संघ राज्यक्षेत्रों] से आयात किए गए माल पर कोई ऐसा कर अधिरोपित कर सकेगा जो उस राज्य में विनिर्मित या उत्पादित वैसे ही माल पर लगता है, किन्तु इस प्रकार कि उससे इस तरह आयात किए गए माल और ऐसे विनिर्मित या उत्पादित माल के बीच कोई विभेद न हो; या (ख) उस राज्य के साथ या उसके भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता पर ऐसे युक्तियुक्त निर्बंधन अधिरोपित कर सकेगा जो लोक हित में अपेक्षित हों : परंतु खंड (ख) के प्रयोजनों के लिए कोई विधेयक या संशोधन राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना किसी राज्य के विधान-मंडल में पुरःस्थापित या प्रस्तावित नहीं किया जाएगा। 2[305. विद्यमान विधियों और राज्य के एकाधिकार का उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति--वहाँ तक के सिवाय जहाँ तक राष्ट्रपति आदेश द्वारा अन्यथा निदेश दे अनुच्छेद 301 और अनुच्छेद 303 की कोई बात किसी विद्यमान विधि के उपबंधों पर कोई प्रभाव नहीं डालेगी और अनुच्छेद 301 की कोई बात संविधान (चौथा संशोधन) अधिनियम, 1955 के प्रारंभ से पहले बनाई गई किसी विधि के प्रवर्तन पर वहाँ तक कोई प्रभाव नहीं डालेगी जहाँ तक वह विधि किसी ऐसे विषय से संबंधित है, जो अनुच्छेद 19 के खंड (6) के उपखंड (i) में निर्दिष्ट है या वह विधि ऐसे किसी विषय के संबंध में, जो अनुच्छेद 19 के खंड (6) के उपखंड (ii) में निर्दिष्ट है, विधि बनाने से संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल को नहीं रोकेगी। 306. [पहली अनुसूची के भाग ख के कुछ राज्यों की व्यापार और वाणिज्य पर निर्बंधनों के अधिरोपण की शक्ति। --संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा निरसित। 307. अनुच्छेद 301 से अनुच्छेद 304 के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए प्राधिकारी की नियुक्ति--संसद विधि द्वारा, ऐसे प्राधिकारी की नियुक्ति कर सकेगी जो वह अनुच्छेद 301, अनुच्छेद 302, अनुच्छेद 303 और अनुच्छेद 304 के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए समुचित समझे और इस प्रकार नियुक्त प्राधिकारी को ऐसी शक्तियां प्रदान कर सकेगी और ऐसे कर्तव्य सौंप सकेगी जो वह आवश्यक समझे। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा अंतःस्थापित। 2 संविधान (चौथा संशोधन) अधिनियम, 1955 की धारा 4 द्वारा अनुच्छेद 305 के स्थान पर प्रतिस्थापित। भाग 14: संघ और राज्यों के अधीन सेवाएँ: अध्याय 1- सेवाएँ 308. निर्वचन--इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, ''राज्य'' पर 1[के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य नहीं है।] 309. संघ या राज्य की सेवा करने वाले व्यक्तियों की भर्ती और सेवा की शर्तें--इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, समुचित विधान-मंडल के अधिनियम संघ या किसी राज्य के कार्यकलाप से संबंधित लोक सेवाओं और पदों के लिए भर्ती का और नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का विनियमन कर सकेंगे: परंतु जब तक इस अनुच्छेद के अधीन समुचित विधान-मंडल के अधिनियम द्वारा या उसके अधीन इस निमित्त उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, यथास्थिति, संघ के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं और पदों की दशा में राष्ट्रपति या ऐसा व्यक्ति जिसे वह निर्दिष्ट करे और राज्य के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं और पदों की दशा में राज्य का राज्यपाल 2*** या ऐसा व्यक्ति जिसे वह निर्दिष्ट करे, ऐसी सेवाओं और पदों के लिए भर्ती का और नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का विनियमन करने वाले नियम बनाने के लिए सक्षम होगा और इस प्रकार बनाए गए नियम किसी ऐसे अधिनियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए प्रभावी होंगे। 310. संघ या राज्य की सेवा करने वाले व्यक्तियों की पदावधि--(1) इस संविधान द्वारा अभिव्यक्त रूप से यथा उपबंधित के सिवाय, प्रत्येक व्यक्ति जो रक्षा सेवा का या संघ की सिविल सेवा का या अखिल भारतीय सेवा का सदस्य है अथवा रक्षा से संबंधित कोई पद या संघ के अधीन कोई सिविल पद धारण करता है, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है और प्रत्येक व्यक्ति जो किसी राज्य की सिविल सेवा का सदस्य है या राज्य के अधीन कोई सिविल पद धारण करता है, उस राज्य के राज्यपाल3 के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है। (2) इस बात के होते हुए भी कि संघ या किसी राज्य के अधीन सिविल पद धारण करने वाला व्यक्ति, यथास्थिति, राष्ट्रपति या राज्य के राज्यपाल 2*** के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है, कोई संविदा जिसके अधीन कोई व्यक्ति जो रक्षा सेवा का या अखिल भारतीय सेवा का या संघ या राज्य की सिविल सेवा का सदस्य नहीं है, ऐसे किसी पद को धारण करने के लिए इस संविधान के अधीन नियुक्त किया जाता है, उस दशा में, जिसमें, यथास्थिति, राष्ट्रपति या राज्यपाल 2*** विशेष अर्हताओं वाले किसी व्यक्ति के सेवाएँ प्राप्त करने के लिए आवश्यक समझता है, यह उपबंध कर सकेगी कि यदि करार की गई अवधि की समाप्ति से पहले वह पद समाप्त कर दिया जाता है या ऐसे कारणों से, जो उसके किसी अवचार से संबंधित नहीं है, उससे वह पद रिक्त करने की अपेक्षा की जाती है तो, उसे प्रतिकर दिया जाएगा। 311. संघ या राज्य के अधीन सिविल हैसियत में नियोजित व्यक्तियों का पदच्युत किया जाना, पद से हटाया जाना या पंक्ति में अवनत किया जाना--(1) किसी व्यक्ति को जो संघ की सिविल सेवा का या अखिल भारतीय सेवा का या राज्य की सिविल सेवा का संदस्य है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई सिविल पद धारण करता है, उसकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकारी के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी द्वारा पदच्युत नहीं किया जाएगा या पद से नहीं हटाया जाएगा। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''प्रथम अनुसूची के भाग क या भाग ख में विनिर्दिष्ट राज्य अभिप्रेत है'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''या राजप्रमुख'' शद्बों का लोप किया गया। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''यथास्थिति, उस राज्य के राज्यपाल या राजप्रमुख'' के स्थान पर उपरोक्त रूप में रखा गया। 1[(2) यथापूर्वोक्त किसी व्यक्ति को, ऐसी जाँच के पश्चात्‌ ही, जिसमें उसे अपने विरुद्ध आरोपों की सूचना दे दी गई है और उन आरोपों के संबंध में 2*** सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दे दिया गया है, पदच्युत किया जाएगा या पद से हटाया जाएगा या पंक्ति में अवनत किया जाएगा, अन्यथा नहीं थ] 3[परंतु जहाँ ऐसी जाँच के पश्चात्‌ उस पर ऐसी कोई शास्ति अधिरोपित करने की प्रस्थापना है वहाँ ऐसी शास्ति ऐसी जाँच के दौरान दिए गए साक्ष्य के आधार पर अधिरोपित की जा सकेगी और ऐसे व्यक्ति को प्रस्थापित शास्ति के विषय में अभ्यावेदन करने का अवसर देना आवश्यक नहीं होगा : परंतु यह और कि यह खंड वहाँ लागू नहीं होगा -- (क) जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसे आचरण के आधार पर पदच्युत किया जाता है या पद से हटाया जाता है या पंक्ति में अवनत किया जाता है जिसके लिए आपराधिक आरोप पर उसे सिद्धदोष ठहराया गया है; या (ख) जहाँ किसी व्यक्ति को पदच्युत करने या पद से हटाने या पंक्ति में अवनत करने के लिए सशक्त प्राधिकारी का यह समाधान हो जाता है कि किसी कारण से, जो उस प्राधिकारी द्वारा लेखबद्ध किया जाएगा, यह युक्तियुक्त रूप से साध्य नहीं है कि ऐसी जाँच की जाए; या (ग) जहाँ, यथास्थिति, राष्ट्रपति या राज्यपाल का यह समाधान हो जाता है कि राज्य की सुरक्षा के हित में यह समीचीन नहीं है कि ऐसी जाँच की जाए। (3) यदि यथापूर्वोक्त किसी व्यक्ति के संबंध में यह प्रश्न उठता है कि खंड (2) में निर्दिष्ट जाँच करना युक्तियुक्त रूप से साध्य है या नहीं तो उस व्यक्ति को पदच्युत करने या पद से हटाने या पंक्ति में अवनत करने के लिए सशक्त प्राधिकारी का उस पर विनिश्चय अंतिम होगा। 312. अखिल भारतीय सेवाएँ--(1) 4[भाग 6 के अध्याय 6 या भाग 11] में किसी बात के होते हुए भी, यदि राज्य सभा ने उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित संकल्प द्वारा यह घोषित किया है कि राष्ट्रीय हित में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो संसद‌, विधि द्वारा, संघ और राज्यों के लिए सम्मिलित एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं के 5[(जिनके अंतर्गत अखिल भारतीय न्यायिक सेवा है)] सृजन के लिए उपबंध कर सकेगी और इस अध्याय के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी ऐसी सेवा के लिए भर्ती का और नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का विनियमन कर सकेगी। (2) इस संविधान के प्रारंभ पर भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के नाम से ज्ञात सेवाएँ इस अनुच्छेद के अधीन संसद द्वारा सृजित सेवाएँ समझी जाएँगी। 5[(3) खंड (1) में निर्दिष्ट अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के अंतर्गत अनुच्छेद 236 में परिभाषित जिला न्यायाधीश के पद से अवर कोई पद नहीं होगा। (4) पूर्वोक्त अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के सृजन के लिए उपबंध करने वाली विधि में भाग 6 के अध्याय 6 के संशोधन के लिए ऐसे उपबंध अंतर्विष्ट हो सकेंगे जो उस विधि के उपबंधों को कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक हों और ऐसी कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए संविधान का संशोधन नहीं समझी जाएगी। 1 संविधान (पन्द्रहवाँ संशोधन) धिनियम, 1963 की धारा 10 द्वारा खंड (2) और खंड (3) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधऩ) अधिनियम, 1976 की धारा 44 द्वारा (3-1-1977 से) कुछ शब्दों का लोप किया गया। 3 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 44 द्वारा (3-1-1977 से) कुछ शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (बयालीसवाँ संशोधऩ) अधिनियम, 1976 की धारा 45 द्वारा (3-1-1977 से) ''भाग 11'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 5 संविधान (बयालीसवाँ संशोधऩ) अधिनियम, 1976 की धारा 45 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित। 1[312क. कुछ सेवाओं के अधिकारियों की सेवा की शर्तों में परिवर्तन करने या उन्हें प्रतिसंहृत करने की संसद की शक्ति--(1) संसद, विधि द्वारा -- (क) उन व्यक्तियों के, जो सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा या सेक्रेटरी ऑफ स्टेट इन कौंसिल द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले भारत में क्राउन की किसी सिविल सेवा में नियुक्त किए गए थे और जो संविधान (अट्ठाइसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1972 के प्रारंभ पर और उसके पश्चात्‌, भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी सेवा या पद पर बने रहते हैं, पारिश्रमिक, छुट्टी और पेंशन संबंधी सेवा की शर्तें तथा अनुशासनिक विषयों संबंधी अधिकार, भविष्यलक्षी या भूतलक्षी रूप से परिवर्तित कर सकेगी या प्रतिसंहृत कर सकेगी; (ख) उन व्यक्तियों के, जो सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा या सेक्रेटरी ऑफ स्टेट इन कौंसिल द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले भारत में क्राउन की किसी सिविल सेवा में नियुक्त किए गए थे और जो संविधान (अट्ठाइसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1972 के प्रारंभ से पहले किसी समय सेवा से निवृत्त हो गए हैं या अन्यथा सेवा में नहीं रहे हैं, पेंशन संबंधी सेवा की शर्तें भविष्यलक्षी या भूतलक्षी रूप से परिवर्तित कर सकेगी या प्रतिसंहृत कर सकेगी : परंतु किसी ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के मुख्‍य न्यायमूर्ति या अन्य न्यायाधीश, भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक, संघ या किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या अन्य सदस्य अथवा मुख्‍य निर्वाचन आयुक्त का पद धारण कर रहा है या कर चुका है, उपखंड (क) या उपखंड (ख) की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह संसद को, उस व्यक्ति की उक्त पद पर नियुक्ति के पश्चात्‌, उसकी सेवा की शर्तों में, वहाँ तक के सिवाय जहाँ तक ऐसी सेवा की शर्तें उसे सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा या सेक्रेटरी ऑफ स्टेट इन कौंसिल द्वारा भारत में क्राउन की किसी सिविल सेवा में नियुक्त किया गया व्यक्ति होने के कारण लागू हैं, उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन करने के लिए या उन्हें प्रतिसंहृत करने के लिए सशक्त करती है। (2) वहाँ तक के सिवाय जहाँ तक संसद, विधि द्वारा, इस अनुच्छेद के अधीन उपबंध करे इस अनुच्छेद की कोई बात खंड (1) में निर्दिष्ट व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का विनियमन करने की इस संविधान के किसी अन्य उपबंध के अधीन किसी विधान-मंडल या अन्य प्राधिकारी की शक्ति पर प्रभाव नहीं डालेगी। (3) उच्चतम न्यायालय को या किसी अन्य न्यायालय को निम्नलिखित विवादों में कोई अधिकारिता नहीं होगी, अर्थात्‌ :-- (क) किसी प्रसंविदा, करार या अन्य ऐसी ही लिखत के, जिसे खंड (1) में निर्दिष्ट किसी व्यक्ति ने किया है या निष्पादित किया है, किसी उपबंध से या उस पर किए गए किसी पृष्ठांकन से उत्पन्न कोई विवाद अथवा ऐसे व्यक्ति को, भारत में क्राउन की किसी सिविल सेवा में उसकी नियुक्ति या भारत डोमिनियन की या उसके किसी प्रांत की सरकार के अधीन सेवा में उसके बने रहने के संबंध में भेजे गए किसी पत्र के आधार पर उत्पन्न कोई विवाद ; (ख) मूल रूप में यथा अधिनियमित अनुच्छेद 314 के अधीन किसी अधिकार, दायित्व या बाध्यता के संबंध में कोई विवाद। (4) इस अनुच्छेद के उपबंध मूल रूप में यथा अधिनियमित अनुच्छेद 314 में या इस संविधान के किसी अन्य उपबंध में किसी बात के होते हुए भी प्रभावी होंगे। 313. संक्रमणकालीन उपबंध--जब तक इस संविधान के अधीन इस निमित्त अन्य उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी सभी विधियां जो इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रवृत्त हैं और किसी ऐसी लोक सेवा या किसी ऐसे पद को, जो इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात्‌ अखिल भारतीय सेवा के अथवा संघ या किसी राज्य के अधीन सेवा या पद के रूप में बना रहता है, लागू हैं वहाँ तक प्रवृत्त बनी रहेंगी जहाँ तक वे इस संविधान के उपबंधों से संगत है। 314. [कुछ सेवाओं के विद्यमान अधिकारियों के संरक्षण के लिए उपबंध।] संविधान (अट्ठाइसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1972 की धारा 3 द्वारा (2-8-1972 से) निरसित। 1 संविधान (अट्ठाईसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1972 की धारा 2 द्वारा (29-8-1972 से) अंतःस्थापित। भाग 14: संघ और राज्यों के अधीन सेवाएँ: अध्याय 2- लोक सेवा आयोग 315. संघ और राज्यों के लिए लोक सेवा आयोग--(1) इस अनुच्छेद के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग और प्रत्येक राज्य के लिए एक लोक सेवा आयोग होगा। (2) दो या अधिक राज्य यह करार कर सकेंगे कि राज्यों के उस समूह के लिए एक ही लोक सेवा आयोग होगा और यदि इस आशय का संकल्प उन राज्यों में से प्रत्येक राज्य के विधान-मंडल के सदन द्वारा या जहाँ दो सदन हैं वहाँ प्रत्येक सदन द्वारा पारित कर दिया जाता है तो संसद उन राज्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विधि द्वारा संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग की (जिसे इस अध्याय में ''संयुक्त आयोग'' कहा गया है) नियुक्ति का उपबंध कर सकेगी। (3) पूर्वोक्त प्रकार की किसी विधि में ऐसे आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध हो सकेंगे जो उस विधि के प्रयोजनों को प्रभावी करने के लिए आवश्यक या वांछनीय हों। (4) यदि किसी राज्य का राज्यपाल 1*** संघ लोक सेवा आयोग से ऐसा करने का अनुरोध करता है तो वह राष्ट्रपति के अनुमोदन से उस राज्य की सभी या किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए सहमत हो सकेगा। (5) इस संविधान में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो संघ लोक सेवा आयोग या किसी राज्य लोक सेवा आयोग के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे ऐसे आयोग के प्रति निर्देश हैं जो प्रश्नगत किसी विशिष्ट विषय के संबंध में, यथास्थिति, संघ की या राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। 316. सदस्यों की नियुक्ति और पदावधि--(1) लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति, यदि वह संघ आयोग या संयुक्त आयोग है तो, राष्ट्रपति द्वारा और, यदि वह राज्य आयोग है तो, राज्य के राज्यपाल 1*** द्वारा की जाएगी : परंतु प्रत्येक लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से यथाशक्य निकटतम आधे ऐसे व्यक्ति होंगे जो अपनी-अपनी नियुक्ति की तारीख पर भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन कम से कम दस वर्ष तक पद धारण कर चुके हैं और उक्त दस वर्ष की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की ऐसी अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने भारत में क्राउन के अधीन या किसी देशी राज्य की सरकार के अधीन पद धारण किया है। 2[(1क) यदि आयोग के अध्‍यक्ष का पद रिक्त हो जाता है या यदि कोई ऐसा अध्‍यक्ष अनुपस्थिति के कारण या अन्य कारण से अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तो, यथास्थिति, जब तक रिक्त पद पर खंड (1) के अधीन नियुक्त कोई व्यक्ति उस पद का कर्तव्य भार ग्रहण नहीं कर लेता है या जब तक अध्‍यक्ष अपने कर्तव्यों को फिर से नहीं संभाल लेता है तब तक आयोग के अन्य सदस्यों में से ऐसा एक सदस्य, जिसे संघ आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में राष्ट्रपति और राज्य आयोग की दशा में उस राज्य का राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उन कर्तव्यों का पालन करेगा। (2) लोक सेवा आयोग का सदस्य, अपने पद ग्रहण की तारीख से छह वर्ष की अवधि तक या संघ आयोग की दशा में पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक और राज्य आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में3[बासठ वर्ष] की आयु प्राप्त कर लेने तक इनमें से जो भी पहले हो, अपना पद धारण करेगा: 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। 2 संविधान (पन्द्रहवाँ संशोधऩ) अधिनियम, 1963 की धारा 11 द्वारा अंतःस्थापित। 3 संविधान (इकतालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 2 द्वारा ''साठ वर्ष'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। परंतु -- (क) लोक सेवा आयोग का कोई सदस्य, संघ आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में राष्ट्रपति को और राज्य आयोग की दशा में राज्य के राज्यपाल 1*** को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; (ख) लोक सेवा आयोग के किसी सदस्य को, अनुच्छेद 317 के खंड (1) या खंड (3) में उपबंधित रीति से उसके पद से हटाया जा सकेगा। (3) कोई व्यक्ति जो लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में पद धारण करता है, अपनी पदावधि की समाप्ति पर उस पद पर पुनर्नियुक्ति का पात्र नहीं होगा। 317. लोक सेवा आयोग के किसी सदस्य का हटाया जाना और निलंबित किया जाना--(1) खंड (3) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष या किसी अन्य सदस्य को केवल कदाचार के आधार पर किए गए राष्ट्रपति के ऐसे आदेश से उसके पद से हटाया जाएगा जो उच्चतम न्यायालय को राष्ट्रपति द्वारा निर्देश किए जाने पर उस न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 145 के अधीन इस निमित्त विहित प्रक्रिया के अनुसार की गई जाँच पर, यह प्रतिवेदन किए जाने के पश्चात्‌ किया गया है कि, यथास्थिति, अध्‍यक्ष या ऐसे किसी सदस्य को ऐसे किसी आधार पर हटा दिया जाए। (2) आयोग के अध्‍यक्ष या किसी अन्य सदस्य को, जिसके संबंध में खंड (1) के अधीन उच्चतम न्यायालय को निर्देश किया गया है, संघ आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में राष्ट्रपति और राज्य आयोग की दशा में राज्यपाल 1*** उसके पद से तब तक के लिए निलंबित कर सकेगा जब तक राष्ट्रपति ऐसे निर्देश पर उच्चतम न्यायालय का प्रतिवेदन मिलने पर अपना आदेश पारित नहीं कर देता है। (3) खंड (1) में किसी बात के होते हुए भी, यदि लोक सेवा आयोग का, यथास्थिति, अध्‍यक्ष या कोई अन्य सदस्य -- (क) दिवालिया न्यायनिर्णीत किया जाता है, या (ख) अपनी पदावधि में अपने पद के कर्तव्यों के बाहर किसी सवेतन नियोजन में लगता है, या (ग) राष्ट्रपति की राय में मानसिक या शारीरिक शैथिल्य के कारण अपने पद पर बने रहने के लिए अयोग्य है, तो राष्ट्रपति, अध्‍यक्ष या ऐसे अन्य सदस्य को आदेश द्वारा पद से हटा सकेगा। (4) यदि लोक सेवा आयोग का अध्‍यक्ष या कोई अन्य सदस्य, निगमित कंपनी के सदस्य के रूप में और कंपनी के अन्य सदस्यों के साथ सम्मिलित रूप से अन्यथा, उस संविदा या करार से, जो भारत सरकार या राज्य सरकार के द्वारा या निमित्त की गई या किया गया है, किसी प्रकार से संपृक्त या हितबद्ध है या हो जाता है या उसके लाभ या उससे उद्‌भूत किसी फायदे या उपलब्धि में भाग लेता है तो वह खंड (1) के प्रयोजनों के लिए कदाचार का दोषी समझा जाएगा। 318. आयोग के सदस्यों और कर्मचारिवृंद की सेवा की शर्तों के बारे में विनियम बनाने की शक्ति--संघ आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में राष्ट्रपति और राज्य आयोग की दशा में उस राज्य का राज्यपाल1*** विनियमों द्वारा -- (क) आयोग के सदस्यों की संवया और उनकी सेवा की शर्तों का अवधारण कर सकेगा; और (ख) आयोग के कर्मचारिवृंद के सदस्यों की संवया और उनकी सेवा की शर्तों के संबंध में उपबंध कर सकेगा: परंतु लोक सेवा आयोग के सदस्य की सेवा की शर्तों में उसकी नियुक्ति के पश्चात्‌ उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। 319. आयोग के सदस्यों द्वारा ऐसे सदस्य न रहने पर पद धारण करने के संबंध में प्रतिषेध--पद पर न रह जाने पर -- (क) संघ लोक सेवा आयोग का अध्‍यक्ष भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी भी और नियोजन का पात्र नहीं होगा; (ख) किसी राज्य लोक सेवा आयोग का अध्‍यक्ष संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष या अन्य सदस्य के रूप में अथवा किसी अन्य राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा; (ग) संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष से भिन्न कोई अन्य सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में या किसी राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा; (घ) किसी राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष से भिन्न कोई अन्य सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष या किसी अन्य सदस्य के रूप में अथवा उसी या किसी अन्य राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा। 320. लोक सेवा आयोगों के कृत्य--(1) संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों का यह कर्तव्य होगा कि वे क्रमशः संघ की सेवाओं और राज्य की सेवाओं में नियुक्तियों के लिए परीक्षाओं का संचालन करें। (2) यदि संघ लोक सेवा आयोग से कोई दो या अधिक राज्य ऐसा करने का अनुरोध करते हैं तो उसका यह भी कर्तव्य होगा कि वह ऐसी किन्हीं सेवाओं के लिए, जिनके लिए विशेष अर्हताओं वाले अभ्यर्थी अपेक्षित हैं, संयुक्त भर्ती की स्कीमें बनाने और उनका प्रवर्तन करने में उन राज्यों की सहायता करे। (3) यथास्थिति, संघ लोक सेवा आयोग या राज्य लोक सेवा आयोग से-- (क) सिविल सेवाओं में और सिविल पदों के लिए भर्ती की पद्धतियों से संबंधित सभी विषयों पर, (ख) सिविल सेवाओं और पदों पर नियुक्ति करने में तथा एक सेवा से दूसरी सेवा में प्रोन्नति और अंतरण करने में अनुसरण किए जाने वाले सिद्धांतों पर और ऐसी नियुक्ति, प्रोन्नति या अंतरण के लिए अभ्यर्थियों की उपयुक्तता पर, (ग) ऐसे व्यक्ति पर, जो भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार की सिविल हैसियत में सेवा कर रहा है, प्रभाव डालने वाले, सभी अनुशासनिक विषयों पर, जिनके अंतर्गत ऐसे विषयों से संबंधित अभ्यावेदन या याचिकाएँ हैं, (घ) ऐसे व्यक्ति द्वारा या उसके संबंध में, जो भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन या भारत में क्राउन के अधीन या किसी देशी राज्य की सरकार के अधीन सिविल हैसियत में सेवा कर रहा है या कर चुका है, इस दावे पर कि अपने कर्तव्य के निष्पादन में किए गए या किए जाने के लिए तात्पर्यित कार्यों के संबंध में उसके विरुद्ध संस्थित विधिक कार्यवाहियों की प्रतिरक्षा में उसके द्वारा उपगत खर्च का, यथास्थिति, भारत की संचित निधि में से या राज्य की संचित निधि में से संदाय किया जाना चाहिए, (ङ) भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार या भारत में क्राउन के अधीन या किसी देशी राज्य की सरकार के अधीन सिविल हैसियत में सेवा करते समय किसी व्यक्ति को हुई क्षतियों के बारे में पेंशन अधिनिर्णित किए जाने के लिए किसी दावे पर और ऐसे अधिनिर्णय की रकम विषयक प्रश्न पर, 319. आयोग के सदस्यों द्वारा ऐसे सदस्य न रहने पर पद धारण करने के संबंध में प्रतिषेध--पद पर न रह जाने पर -- (क) संघ लोक सेवा आयोग का अध्‍यक्ष भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी भी और नियोजन का पात्र नहीं होगा; (ख) किसी राज्य लोक सेवा आयोग का अध्‍यक्ष संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष या अन्य सदस्य के रूप में अथवा किसी अन्य राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा; (ग) संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष से भिन्न कोई अन्य सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में या किसी राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा; (घ) किसी राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष से भिन्न कोई अन्य सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष या किसी अन्य सदस्य के रूप में अथवा उसी या किसी अन्य राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा। 320. लोक सेवा आयोगों के कृत्य--(1) संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों का यह कर्तव्य होगा कि वे क्रमशः संघ की सेवाओं और राज्य की सेवाओं में नियुक्तियों के लिए परीक्षाओं का संचालन करें। (2) यदि संघ लोक सेवा आयोग से कोई दो या अधिक राज्य ऐसा करने का अनुरोध करते हैं तो उसका यह भी कर्तव्य होगा कि वह ऐसी किन्हीं सेवाओं के लिए, जिनके लिए विशेष अर्हताओं वाले अभ्यर्थी अपेक्षित हैं, संयुक्त भर्ती की स्कीमें बनाने और उनका प्रवर्तन करने में उन राज्यों की सहायता करे। (3) यथास्थिति, संघ लोक सेवा आयोग या राज्य लोक सेवा आयोग से-- (क) सिविल सेवाओं में और सिविल पदों के लिए भर्ती की पद्धतियों से संबंधित सभी विषयों पर, (ख) सिविल सेवाओं और पदों पर नियुक्ति करने में तथा एक सेवा से दूसरी सेवा में प्रोन्नति और अंतरण करने में अनुसरण किए जाने वाले सिद्धांतों पर और ऐसी नियुक्ति, प्रोन्नति या अंतरण के लिए अभ्यर्थियों की उपयुक्तता पर, (ग) ऐसे व्यक्ति पर, जो भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार की सिविल हैसियत में सेवा कर रहा है, प्रभाव डालने वाले, सभी अनुशासनिक विषयों पर, जिनके अंतर्गत ऐसे विषयों से संबंधित अभ्यावेदन या याचिकाएँ हैं, (घ) ऐसे व्यक्ति द्वारा या उसके संबंध में, जो भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन या भारत में क्राउन के अधीन या किसी देशी राज्य की सरकार के अधीन सिविल हैसियत में सेवा कर रहा है या कर चुका है, इस दावे पर कि अपने कर्तव्य के नि-पादन में किए गए या किए जाने के लिए तात्पर्यित कार्र्यों के संबंध में उसके विरुद्ध संस्थित विधिक कार्यवाहियों की प्रतिरक्षा में उसके द्वारा उपगत खर्च का, यथास्थिति, भारत की संचित निधि में से या राज्य की संचित निधि में से संदाय किया जाना चाहिए, (ङ) भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार या भारत में क्राउन के अधीन या किसी देशी राज्य की सरकार के अधीन सिविल हैसियत में सेवा करते समय किसी व्यक्ति को हुई क्षतियों के बारे में पेंशन अधिनिर्णित किए जाने के लिए किसी दावे पर और ऐसे अधिनिर्णय की रकम विषयक प्रश्न पर परामर्श किया जाएगा और इस प्रकार उसे निर्देशित किए गए किसी विषय पर तथा ऐसे किसी अन्य विषय पर, जिसे, यथास्थिति, राष्ट्रपति या उस राज्य का राज्यपाल 1*** उसे निर्देशित करे, परामर्श देने का लोक सेवा आयोग का कर्तव्य होगा : परंतु अखिल भारतीय सेवाओं के संबंध में तथा संघ के कार्यकलाप से संबंधित अन्य सेवाओं और पदों के संबंध में भी राष्ट्रपति तथा राज्य के कार्यकलाप से संबधित अन्य सेवाओं और पदों के संबंध में राज्यपाल2*** उन विषयों को विनिर्दिष्ट करने वाले विनियम बना सकेगा जिनमें साधारणतया या किसी विशिष्ट वर्ग के मामले में या किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में लोक सेवा आयोग से परामर्श किया जाना आवश्यक नहीं होगा। (4) खंड (3) की किसी बात से यह अपेक्षा नहीं होगी कि लोक सेवा आयोग से उस रीति के संबंध में, जिससे अनुच्छेद 16 के खंड (4) में निर्दिष्ट कोई उपबंध किया जाना है या उस रीति के संबंध में, जिससे अनुच्छेद 335 के उपबंधों को प्रभावी किया जाना है, परामर्श किया जाए। (5) राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल 3*** द्वारा खंड (3) के परंतुक के अधीन बनाए गए सभी विनियम, बनाए जाने के पश्चात्‌ यथाशीघ्र, यथास्थिति, संसद के प्रत्येक सदन या राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन के समक्ष कम से कम चौदह दिन के लिए रखे जाएँगे और निरसन या संशोधन द्वारा किए गए ऐसे उपांतरणों के अधीन होंगे जो संसद के दोनों सदन या उस राज्य के विधान-मंडल का सदन या दोनों सदन उस सत्र में करें जिसमें वे इस प्रकार रखे गए हैं। 321. लोक सेवा आयोगों के कृत्यों का विस्तार करने की शक्ति--यथास्थिति, संसद द्वारा या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाया गया कोई अधिनियम संघ लोक सेवा आयोग या राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा संघ की या राज्य की सेवाओं के संबंध में और किसी स्थानीय प्राधिकारी या विधि द्वारा गठित अन्य निगमित निकाय या किसी लोक संस्था की सेवाओं के संबंध में भी अतिरिक्त कृत्यों के प्रयोग के लिए उपबंध कर सकेगा। 322. लोक सेवा आयोगों के व्यय--संघ या राज्य लोक सेवा आयोग के व्यय, जिनके अंतर्गत आयोग के सदस्यों या कर्मचारिवृंद को या उनके संबंध में संदेय कोई वेतन, भत्ते और पेंशन हैं, यथास्थिति, भारत की संचित निधि या राज्य की संचित निधि पर भारित होंगे। 323. लोक सेवा आयोगों के प्रतिवेदन--(1) संघ आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को आयोग द्वारा किए गए कार्य के बारे में प्रतिवर्ष प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसा प्रतिवेदन प्राप्त होने पर उन मामलों के संबंध में, यदि कोई हों, जिनमें आयोग की सलाह स्वीकार नहीं की गई थी, ऐसी अस्वीकृति के कारणों को सपष्ट करने वाले ज्ञापन सहित उस प्रतिवेदन की प्रति संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा। (2) राज्य आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राज्य के राज्यपाल 1*** को आयोग द्वारा किए गए कार्य के बारे में प्रतिवर्ष प्रतिवेदन दे और संयुक्त आयोग का यह कर्तव्य होगा कि ऐसे राज्यों में से प्रत्येक के, जिनकी आवश्यकताओं की पूर्ति संयुक्त आयोग द्वारा की जाती है, राज्यपाल 1*** को उस राज्य के संबंध में आयोग द्वारा किए गए कार्य के बारे में प्रतिवर्ष प्रतिवेदन दे और दोनों में से प्रत्येक दशा में ऐसा प्रतिवेदन प्राप्त होने पर, राज्यपाल 4*** उन मामलों के संबंध में, यदि कोई हों, जिनमें आयोग की सलाह स्वीकार नहीं की गई थी, ऐसी अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाले ज्ञापन सहित उस प्रतिवेदन की प्रति राज्य के विधान-मंडल के समक्ष रखवाएगा। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा '' यथास्थापित राज्यपाल या राजप्रमुख'' शब्दों के स्थान पर उपरोक्त रूप से रखा गया। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा '' राज्यपाल या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। 4 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''यथास्थिति, राज्यपाल या राजप्रमुख'' के स्थान पर उपरोक्त रूप से रखा गया। 1भाग 14क: अधिकरण 323क. प्रशासनिक अधिकरण --(1) संसद, विधि द्वारा, संघ या किसी राज्य के अथवा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अथवा सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन किसी निगम के कार्यकलाप से संबंधित लोक सेवाओं और पदों के लिए भर्ती तथा नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों के संबंध में विवादों और परिवादों के प्रशासनिक अधिकरणों द्वारा न्यायनिर्णयन या विचारण के लिए उपबंध कर सकेगी। (2) खंड (1) के अधीन बनाई गई विधि-- (क) संघ के लिए एक प्रशासनिक अधिकरण और प्रत्येक राज्य के लिए अथवा दो या अधिक राज्यों के लिए एक पृथक्‌ प्रशासनिक अधिकरण की स्थापना के लिए उपबंध कर सकेगी ; (ख) उक्त अधिकरणों में से प्रत्येक अधिकरण द्वारा प्रयोग की जाने वाली अधिकारिता, शक्तियाँ (जिनके अंतर्गत अवमान के लिए दंड देने की शक्ति है) और प्राधिकार विनिर्दिष्ट कर सकेगी ; (ग) उक्त अधिकरणों द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया के लिए (जिसके अंतर्गत परिसीमा के बारे में और साक्ष्य के नियमों के बारे में उपबंध हैं) उपबंध कर सकेगी ; (घ) अनुच्छेद 136 के अधीन उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता के सिवाय सभी न्यायालयों की अधिकारिता का खंड (1) में निर्दिष्ट विवादों या परिवादों के संबध में अपवर्जन कर सकेगी ; (ङ) प्रत्येक ऐसे प्रशासनिक अधिकरण को उन मामलों के अंतरण के लिए उपबंध कर सकेगी जो ऐसे अधिकरण की स्थापना से ठीक पहले किसी न्यायालय या अन्य प्राधिकारी के समक्ष लंबित हैं और जो, यदि ऐसे वाद हेतुक जिन पर ऐसे वाद या कार्यवाहियाँ आधारित हैं, अधिकरण की स्थापना के पश्चात्‌ उत्पन्न होते तो, ऐसे अधिकरण की अधिकारिता के भीतर होते ; (च) राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 371घ के खंड (3) के अधीन किए गए आदेश का निरसन या संशोधन कर सकेगी ; (छ) ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध (जिनके अंतर्गत फीस के बारे में उपबंध हैं) अंतर्विष्ट कर सकेगी जो संसद् ऐसे अधिकरणों के प्रभावी कार्यकरण के लिए और उनके द्वारा मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए और उनके आदेशों के प्रवर्तन के लिए आवश्यक समझे। (3) इस अनुच्छेद के उपबंध इस संविधान के किसी अन्य उपबंध में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी प्रभावी होंगे। 323ख. अन्य विषयों के लिए अधिकरण --(1) समुचित विधान-मंडल, विधि द्वारा, ऐसे विवादों, परिवादों या अपराधों के अधिकरणों द्वारा न्यायनिर्णयन या विचारण के लिए उपबंध कर सकेगा जो खंड (2) में विनिर्दिष्ट उन सभी या किन्हीं विषयों से संबंधित हैं जिनके संबंध में ऐसे विधान-मंडल को विधि बनाने की शक्ति है। (2) खंड (1) में निर्दिष्ट विषय निम्नलिखित हैं, अर्थात्‌ :-- (क) किसी कर का उद्ग्रहण, निर्धारण, संग्रहण और प्रवर्तन ; (ख) विदेशी मुद्रा, सीमाशुल्क सीमांतों के आर-पार आयात और निर्यात ; (ग) औद्योगिक और श्रम विवाद ; 1 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 46 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित। (घ) अनुच्छेद 31क में यथापरिभाषित किसी संपदा या उसमें किन्हीं अधिकारों के राज्य द्वारा अर्जन या ऐसे किन्हीं अधिकारों के निर्वापन या उपांतरण द्वारा या कृषि भूमि की अधिकतम सीमा द्वारा या किसी अन्य प्रकार से भूमि सुधार ; (ङ) नगर संपत्ति की अधिकतम सीमा ; (च) संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिए निर्वाचन, किन्तु अनुच्छेद 329 और अनुच्छेद 329क में निर्दिष्ट विषयों को छोड़कर ; (छ) खाद्य पदार्थों का (जिनके अंतर्गत खाद्य तिलहन और तेल हैं) और ऐसे अन्य माल का उत्पादन, उपापन, प्रदाय और वितरण, जिन्हें राष्ट्रपति, लोक अधिसूचना द्वारा, इस अनुच्छेद के प्रयोजन के लिए आवश्यक माल घोषित करे और ऐसे माल की कीमत का नियंत्रण ; 1[(ज)] किराया, उसका विनियमन और नियंत्रण तथा कराएदारी संबंधी विवाद्यक, जिनके अंतर्गत मकान मालिकों और किराएदारों के अधिकार, हक और हित हैं ;] 2[(झ)] उपखंड (क) से उपखंड 3[(ज)] में विनिर्दिष्ट विषयों में से किसी विषय से संबंधित विधियों के विरुद्ध अपराध और उन विषयों में से किसी की बाबत फीस ; 2[(ञ)] उपखंड (क) से उपखंड 4[(झ)] में विनिर्दिष्ट विषयों में से किसी का आनुषंगिक कोई विषय। (3) खंड (1) के अधीन बनाई गई विधि -- (क) अधिकरणों के उत्क्रम की स्थापना के लिए उपबंध कर सकेगी ; (ख) उक्त अधिकरणों में से प्रत्येक अधिकरण द्वारा प्रयोग की जाने वाली अधिकारिता, शक्तियाँ (जिनके अंतर्गत अवमान के लिए दंड देने की शक्ति है) और प्राधिकार विनिर्दिष्ट कर सकेगी ; (ग) उक्त अधिकरणों द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया के लिए (जिसके अंतर्गत परिसीमा के बारे में और साक्ष्य के नियमों के बारे में उपबंध हैं) उपबंध कर सकेगी ; (घ) अनुच्छेद 136 के अधीन उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता के सिवाय सभी न्यायालयों की अधिकारिता का उन सभी या किन्हीं विषयों के संबंध में अपवर्जन कर सकेगी जो उक्त अधिकरणों की अधिकारिता के अंतर्गत आते हैं ; (ङ) प्रत्येक ऐसे अधिकरण को उन मामलों के अंतरण के लिए उपबंध कर सकेगी जो ऐसे अधिकरण की स्थापना से ठीक पहले किसी न्यायालय या अन्य प्राधिकारी के समक्ष लंबित हैं और जो, यदि ऐसे वाद हेतुक जिन पर ऐसे वाद या कार्यवाहियाँ आधारित हैं, अधिकरण की स्थापना के पश्चात्‌ उत्पन्न होते तो ऐसे अधिकरण की अधिकारिता के भीतर होते ; (च) ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध (जिनके अंतर्गत फीस के बारे में उपबंध हैं) अंतर्विष्ट कर सकेगी जो समुचित विधान-मंडल ऐसे अधिकरणों के प्रभावी कार्यकरण के लिए और उनके द्वारा मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए और उनके आदेशों के प्रवर्तन के लिए आवश्यक समझे। (4) इस अनुच्छेद के उपबंध इस संविधान के किसी अन्य उपबंध में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी प्रभावी होंगे। स्पष्टीकरण--इस अनुच्छेद में, किसी विषय के संबंध में, ''समुचित विधान-मंडल'' से, यथास्थिति, संसद या किसी राज्य का विधान-मंडल अभिप्रेत है, जो भाग 11 के उपबंधों के अनुसार ऐसे विषय के संबंध में विधि बनाने के लिए सक्षम है। 1 संविधान (पचहत्तरवाँ संशोधन) अधिनियम, 1993 की धारा 2 द्वारा (15-5-1994 से) अंतःस्थापित। 2 संविधान (पचहत्तरवाँ संशोधन) अधिनियम, 1993 की धारा 2 द्वारा (15-5-1994 से) उपखंड (ज) और (झ) को उपखंड (झ) और (ञ) के रूप में पुनःअक्षरांकित किया जाएगा। 3 संविधान (पचहत्तरवाँ संशोधन) अधिनियम, 1993 की धारा 2 द्वारा (15-5-1994 से) ''(छ)'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (पचहत्तरवाँ संशोधन) अधिनियम, 1993 की धारा 2 द्वारा (15-5-1994 से) ''(ज)'' के स्थान पर प्रतिस्थापित भाग 15: निर्वाचन 324. निर्वाचनों के अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण का निर्वाचन आयोग में निहित होना---(1) इस संविधान के अधीन संसद और प्रत्येक राज्य के विधान-मंडल के लिए कराए जाने वाले सभी निर्वाचनों के लिए तथा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पदों के लिए निर्वाचनों के लिए निर्वाचक-नामावली तैयार कराने का और उन सभी निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण, 1*** एक आयोग में निहित होगा (जिसे इस संविधान में निर्वाचन आयोग कहा गया है)। (2) निर्वाचन आयोग मुख्‍य निर्वाचन आयुक्त और उतने अन्य निर्वाचन आयुक्तों से, यदि कोई हों, जितने राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे, मिलकर बनेगा तथा मुख्‍य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति, संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। (3) जब कोई अन्य निर्वाचन आयुक्त इस प्रकार नियुक्त किया जाता है तब मुख्‍य निर्वाचन आयुक्त निर्वाचन आयोग के अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा। (4) लोक सभा के और प्रत्येक राज्य की विधान सभा के प्रत्येक साधारण निर्वाचन से पहले तथा विधान परिषद वाले प्रत्येक राज्य की विधान परिषद के लिए प्रथम साधारण निर्वाचन से पहले और उसके पश्चात्‌ प्रत्येक द्विवार्षिक निर्वाचन से पहले, राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग से परामर्श करने के पश्चात्‌, खंड (1) द्वारा निर्वाचन आयोग को सौंपे गए कृत्यों के पालन में आयोग की सहायता के लिए उतने प्रादेशिक आयुक्तों की भी नियुक्ति कर सकेगा जितने वह आवश्यक समझे। (5) संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, निर्वाचन आयुक्तों और प्रादेशिक आयुक्तों की सेवा की शर्तें और पदावधि ऐसी होंगी जो राष्ट्रपति नियम द्वारा अवधारित करे: परन्तु मुख्‍य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से उसी रीति से और उन्हीं आधारों पर ही हटाया जाएगा, जिस रीति से और जिन आधारों पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाता है अन्यथा नहीं और मुख्‍य निर्वाचन आयुक्त की सेवा की शर्तों में उसकी नियुक्ति के पश्चात्‌ उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा : परन्तु यह और कि किसी अन्य निर्वाचन आयुक्त या प्रादेशिक आयुक्त को मुख्‍य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर ही पद से हटाया जाएगा, अन्यथा नहीं। (6) जब निर्वाचन आयोग ऐसा अनुरोध करे तब, राष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल 2*** निर्वाचन आयोग या प्रादेशिक आयुक्त को उतने कर्मचारिवृन्द उपलब्ध कराएगा जितने खंड (1) द्वारा निर्वाचन आयोग को सौंपे गए कृत्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक हों। 325. धर्म, मूलवंश, जाति या लिंग के आधार पर किसी व्यक्ति का निर्वाचक-नामावली में सम्मिलित किए जाने के लिए अपात्र न होना और उसके द्वारा किसी विशेष निर्वाचक-नामावली में सम्मिलित किए जाने का दावा न किया जाना---संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिए निर्वाचन के लिए प्रत्येक प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्र के लिए एक साधारण निर्वाचक-नामावली होगी और केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या इनमें से किसी के आधार पर कोई व्यक्ति ऐसी किसी नामावली में सम्मिलित किए जाने के लिए अपात्र नहीं होगा या ऐसे किसी निर्वाचन-क्षेत्र के लिए किसी विशेष निर्वाचक-नामावली में सम्मिलित किए जाने का दावा नहीं करेगा। 326. लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं के लिए निर्वाचनों का वयस्क मताधिकार के आधार पर होना---लोक सभा और प्रत्येक राज्य की विधान सभा के लिए निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे अर्थात्‌ प्रत्येक व्यक्ति, जो भारत का नागरिक है और ऐसी तारीख को, जो समुचित विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस निमित्त नियत की जाए, कम से कम 3[अठारह वर्ष] की आयु का है और इस संविधान या समुचित विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन अनिवास, चित्तविकृति, अपराध या भ्रष्ट या अवैध आचरण के आधार पर अन्यथा निरर्हित नहीं कर दिया जाता है, ऐसे किसी निर्वाचन में मतदाता के रूप में रजिस्ट्रीकृत होने का हकदार होगा। 1 संविधान (उन्नीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1966 की धारा 2 द्वारा ''जिसके अंतर्गत संसद के और राज्य के विधान-मंडलों के निर्वाचनों से उद्‌भूत या संसक्त संदेहों और विवाद के निर्णय के लिए निर्वाचन न्यायाधिकरण की नियुक्ति भी है'' शब्दों का लोप किया गया। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। 3 संविधान (इकसठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1988 की धारा 2 द्वारा ''इक्कीस वर्ष '' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 327. विधान-मंडल के लिए निर्वाचनों के संबंध में उपबंध करने की संसद की शक्ति---इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद समय-समय पर, विधि द्वारा, संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिए निर्वाचनों से संबंधित या संसक्त सभी विषयों के संबंध में, जिनके अंतर्गत निर्वाचक-नामावली तैयार कराना, निर्वाचन-क्षेत्रों का परिसीमन और ऐसे सदन या सदनों का सम्यक्‌ गठन सुनिश्चित करने के लिए अन्य सभी आवश्यक विषय हैं, उपबंध कर सकेगी। 328. किसी राज्य के विधान-मंडल के लिए निर्वाचनों के संबंध में उपबंध करने की उस विधान-मंडल की शक्ति---इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए और जहाँ तक संसद इस निमित्त उपबंध नहीं करती है वहाँ तक, किसी राज्य का विधान-मंडल समय-समय पर, विधि द्वारा, उस राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिए निर्वाचनों से संबंधित या संसक्त सभी विषयों के संबंध में, जिनके अंतर्गत निर्वाचक-नामावली तैयार कराना और ऐसे सदन या सदनों का सम्यक्‌ गठन सुनिश्चित करने के लिए अन्य सभी आवश्यक विषय हैं, उपबंध कर सकेगा। 329. निर्वाचन संबंधी मामलों में न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्जन---1[इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी --] (क) अनुच्छेद 327 या अनुच्छेद 328 के अधीन बनाई गई या बनाई जाने के लिए तात्पर्यित किसी ऐसी विधि की विधिमान्यता, जो निर्वाचन-क्षेत्रों के परिसीमन या ऐसे निर्वाचन-क्षेत्रों को स्थानों के आबंटन से संबंधित है, किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं की जाएगी; (ख) संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिए कोई निर्वाचन ऐसी निर्वाचन अर्जी पर ही प्रश्नगत किया जाएगा, जो ऐसे प्राधिकारी को और ऐसी रीति से प्रस्तुत की गई है जिसका समुचित विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन उपबंध किया जाए, अन्यथा नहीं। 329क. [प्रधान मंत्री और अध्यक्ष के मामले में संसद के लिए निर्वाचनों के बारे में विशेष उपबंध] -- संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 36 द्वारा (20-6-1979 से) निरसित। भाग 16: कुछ वर्गों के संबंध में विशेष उपबंध 330. लोक सभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण--(1) लोक सभा में-- (क) अनुसूचित जातियों के लिए, 1[(ख) असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर अन्य अनुसूचित जनजातियों के लिए, और (ग) असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों के लिए, स्थान आरक्षित रहेंगे। (2) खंड (1) के अधीन किसी राज्य 2[या संघ राज्यक्षेत्र] में अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, लोक सभा में उस राज्य 2[या संघ राज्यक्षेत्र] को आबंटित स्थानों की कुल संख्या से यथाशक्य वही होगा जो, यथास्थिति, से राज्य 2[या संघ राज्यक्षेत्र] की अनुसूचित जातियों की अथवा उस राज्य 2[या संघ राज्यक्षेत्रट की या उस राज्य 2[या संघ राज्यक्षेत्र] के भाग की अनुसूचित जनजातियों की, जिनके संबंध में स्थान इस प्रकार आरक्षित हैं, जनसंख्‍या का अनुपात उस राज्य 2[या संघ राज्यक्षेत्रट की कुल जनसंख्‍या से है। 3[(3) खंड (2) में किसी बात के होते हुए भी, लोक सभा में असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, उस राज्य को आबंटित स्थानों की कुल संख्या के उस अनुपात से कम नहीं होगा जो उक्त स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्‍या का अनुपात उस राज्य की कुल जनसंख्‍या से है। 4[स्पष्टीकरण--इस अनुच्छेद में और अनुच्छेद 332 में, ''जनसंख्‍या'' पद से ऐसी अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना में अभिनिश्चित की गई जनसंख्‍या अभिप्रेत है जिसके सुसंगत आँकड़े प्रकाशित हो गए हैं: परन्तु इस स्पष्टीकरण में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति, जिसके सुसंगत आँकड़े प्रकाशित हो गए हैं, निर्देश का, जब तक सन्‌ 5[2026] के पश्चात्‌ की गई पहली जनगणना के सुसंगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह 6[5[2001] की जनगणना के प्रति निर्देश है।] 331. लोक सभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व--अनुच्छेद 81 में किसी बात के होते हुए भी, यदि राष्ट्रपति की यह राय है कि लोक सभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है तो वह लोक सभा में उस समुदाय के दो से अनधिक सदस्य नामनिर्देशित कर सकेगा। 332. राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण--(1) 7*** प्रत्येक राज्य की विधान सभा में अनुसूचित जातियों के लिए और 8[असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर] अन्य अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे। (2) असम राज्य की विधान सभा में स्वशासी जिलों के लिए भी स्थान आरक्षित रहेंगे। 1 संविधान (इक्यावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1984 की धारा 2 द्वारा (16-6-1986 से) उपखंड (ख) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा अंतःस्थापित। 3 संविधान (इकतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1973 की धारा 3 द्वारा अंतःस्थापित। 4 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 47 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित। 5 संविधान (चौरासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 6 द्वारा प्रतिस्थापित। 6 संविधान (सतासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 5 द्वारा प्रतिस्थापित। 7 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''पहली अनुसूची के भाग क या भाग ख में विनिर्दिष्ट'' शब्दों का लोप किया गया। 8 संविधान (इक्यावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1984 की धारा 3 द्वारा (16-6-1986 से) प्रतिस्थापित। 334. स्थानों के आरक्षण और विशेष प्रतिनिधित्व का 1[साठ वर्ष] के पश्चात्‌ न रहना--इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी,-- (क) लोक सभा में और राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों के आरक्षण संबंधी, और (ख) लोक सभा में और राज्यों की विधान सभाओं में नामनिर्देशन द्वारा आंषल-भारतीय समुदाय के प्रतिनिधित्व संबंधी, इस संविधान के उपबंध इस संविधान के प्रारंभ से 1[साठ वर्ष] की अवधि की समाप्ति पर प्रभावी नहीं रहेंगे : परन्तु इस अनुच्छेद की किसी बात से लोक सभा में या किसी राज्य की विधान सभा में किसी प्रतिनिधित्व पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक, यथास्थिति, उस समय विद्यमान लोक सभा या विधान सभा का विघटन नहीं हो जाता है। 335. सेवाओं और पदों के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावे--संघ या किसी राज्य के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियाँ करने में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा: 2[परन्तु इस अनुच्छेद की कोई बात अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के पक्ष में, संघ या किसी राज्य के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं के किसी वर्ग या वर्गों में या पदों पर प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए, किसी परीक्षा में अर्हक अंकों में छूट देने या मूल्यांकन के मानकों को घटाने के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।] 336. कुछ सेवाओं में आंग्ल-भारतीय समुदाय के लिए विशेष उपबंध--(1) इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात्‌, प्रथम दो वर्ष के दौरान, संघ की रेल, सीमाशुल्क, डाक और तार संबंधी सेवाओं में पदों के लिए आंग्ल-भारतीय समुदाय के सदस्यों की नियुक्तियाँ उसी आधार पर की जाएँगी जिस आधार पर 15 अगस्त, 1947 से ठीक पहले की जाती थीं। प्रत्येक उत्तरवर्ती दो वर्षकी अवधि के दौरान उक्त समुदाय के सदस्यों के लिए, उक्त सेवाओं में आरक्षित पदों की संख्या ठीक पूर्ववर्ती दो वर्षकी अवधि के दौरान इस प्रकार आरक्षित संख्या से यथासंभव निकटतम दस प्रतिशत कम होगी : परन्तु इस संविधान के प्रारंभ से दस वर्षके अंत में ऐसे सभी आरक्षण समाप्त हो जाएँगे। (2) यदि आंग्ल-भारतीय समुदाय के सदस्य अन्य समुदायों के सदस्यों की तुलना में गुणागुण के आधार पर नियुक्ति के लिए अर्हत पाए जाएँ तो खंड (1) के अधीन उस समुदाय के लिए आरक्षित पदों से भिन्न या उनके अतिरिक्त पदों पर आंग्ल-भारतीय समुदाय के सदस्यों की नियुक्ति को उस खंड की कोई बात वर्जित नहीं करेगी। 337. आंग्ल-भारतीय समुदाय के फायदे के लिए शैक्षिक अनुदान के लिए विशेष उपबंध--इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात्‌‌, प्रथम तीन वित्तीय वर्षों के दौरान आंग्ल-भारतीय समुदाय के फायदे के लिए शिक्षा के संबंध में संघ और 3*** प्रत्येक राज्य द्वारा वही अनुदान, यदि कोई हों, दिए जाएँगे जो 31 मार्च, 1948 को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष में दिए गए थे। 1 संविधान (उनासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 1999 की धारा 2 द्वारा (25-1-2000 से) ''पचास वर्ष '' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (बयासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2000 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''पहली अनुसूची के भाग क या भाग ख में विनिर्दिष्ट'' शब्दों और अक्षरों का लोप किया गया। प्रत्येक उत्तरवर्ती तीन वर्ष की अवधि के दौरान अनुदान ठीक पूर्ववर्ती तीन वर्ष की अवधि की अपेक्षा दस प्रतिशत कम हो सकेंगे : परन्तु इस संविधान के प्रारंभ से दस वर्ष के अंत में ऐसे अनुदान, जिस मात्रा तक वे आंग्ल-भारतीय समुदाय के लिए विशेष रियायत है उस मात्रा तक, समाप्त हो जाएँगे : परन्तु यह और कि कोई शिक्षा संस्था इस अनुच्छेद के अधीन अनुदान प्राप्त करने की तब तक हकदार नहीं होगी जब तक उसके वार्षिक प्रवेशों में कम से कम चालीस प्रतिशत प्रवेश आंग्ल-भारतीय समुदाय से भिन्न समुदायों के सदस्यों के लिए उपलब्ध नहीं किए जाते हैं। 338. 1[राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग] -- 2[(1) अनुसूचित जातियों के लिए एक आयोग होगा जो राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के नाम से ज्ञात होगा। (2) संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, आयोग एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और तीन अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा और इस प्रकार नियुक्त किए गए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों की सेवा की शर्तें और पदावधि ऐसी होंगी जो राष्ट्रपति, नियम द्वारा, अवधारित करे। (3) राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों को नियुक्त करेगा। (4) आयोग को अपनी प्रक्रिया स्वयं विनियमित करने की शक्ति होगी। (5) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह,-- (क) अनुसूचित जातियों 3*** के लिए इस संविधान या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि या सरकार के किसी आदेश के अधीन उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन पर निगरानी रखे तथा ऐसे रक्षोपायों के कार्यकरण का मूल्यांकन करे; (ख) अनुसूचित जातियों 3*** को उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने की बाबत विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाँच करें; (ग) अनुसूचित जातियों 3*** के सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग ले और उन प सलाह दे तथा संघ और किसी राज्य के अधीन उनके विकास की प्रगति का मूल्यांकन करे; (घ) उन रक्षोपायों के कार्यकरण के बारे में प्रतिवर्ष, और ऐसे अन्य समयों पर, जो आयोग ठीक समझे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे; (ङ) ऐसे प्रतिवेदनों में उन उपायों के बारे में जो उन रक्षोपायों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा किए जाने चाहिए, तथा अनुसूचित जातियों 3*** के संरक्षण, कल्याण और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अन्य उपायों के बारे में सिफारिश करे; 1 संविधान (नवासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 2 द्वारा (19-2-2004 से) पार्श्व शीर्ष के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (पैंसठवाँ संशोधन) अधिनियम,1990 की धारा 2 और तत्पश्चात्‌ संविधान (नवासीवाँ संशोधन) अधिनियमए 2003 की धारा 2 द्वारा खंड (1) और (2) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (नवासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 2 द्वारा (19-2-2004 से) ''और अनुसूचित जनजातियों'' शब्दों का लोप किया गया। प्रत्येक उत्तरवर्ती तीन वर्ष की अवधि के दौरान अनुदान ठीक पूर्ववर्ती तीन वर्ष की अवधि की अपेक्षा दस प्रतिशत कम हो सकेंगे : परन्तु इस संविधान के प्रारंभ से दस वर्ष के अंत में ऐसे अनुदान, जिस मात्रा तक वे आंग्ल-भारतीय समुदाय के लिए विशेष रियायत है उस मात्रा तक, समाप्त हो जाएँगे : परन्तु यह और कि कोई शिक्षा संस्था इस अनुच्छेद के अधीन अनुदान प्राप्त करने की तब तक हकदार नहीं होगी जब तक उसके वार्षिक प्रवेशों में कम से कम चालीस प्रतिशत प्रवेश आंग्ल-भारतीय समुदाय से भिन्न समुदायों के सदस्यों के लिए उपलब्ध नहीं किए जाते हैं। 338. 1[राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग]--2[(1) अनुसूचित जातियों के लिए एक आयोग होगा जो राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के नाम से ज्ञात होगा। (2) संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, आयोग एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और तीन अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा और इस प्रकार नियुक्त किए गए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों की सेवा की शर्तें और पदावधि ऐसी होंगी जो राष्ट्रपति, नियम द्वारा, अवधारित करे। (3) राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अ न्य सदस्यों को नियुक्त करेगा। (4) आयोग को अपनी प्रक्रिया स्वयं विनियमित करने की शक्ति होगी। (5) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह,-- (क) अनुसूचित जातियों 3*** के लिए इस संविधान या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि या सरकार के किसी आदेश के अधीन उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन पर निगरानी रखे तथा ऐसे रक्षोपायों के कार्यकरण का मूल्यांकन करे; (ख) अनुसूचित जातियों 3*** को उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने की बाबत विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाँच करे; (ग) अनुसूचित जातियों 3*** के सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग ले और उन पर सलाह दे तथा संघ और किसी राज्य के अधीन उनके विकास की प्रगति का मूल्यांकन करे; (घ) उन रक्षोपायों के कार्यकरण के बारे में प्रतिवर्ष, और ऐसे अन्य समयों पर, जो आयोग ठीक समझे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे; (ङ) ऐसे प्रतिवेदनों में उन उपायों के बारे में जो उन रक्षोपायों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा किए जाने चाहिए, तथा अनुसूचित जातियों 3*** के संरक्षण, कल्याण और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अन्य उपायों के बारे में सिफारिश करे; 1 संविधान (नवासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 2 द्वारा (19-2-2004 से) पार्श्व शीर्ष के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (पैंसठवाँ संशोधन) अधिनियम,1990 की धारा 2 और तत्पश्चात्‌ संविधान (नवासीवाँ संशोधन) अधिनियमए 2003 की धारा 2 द्वारा खंड (1) और (2) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (नवासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 2 द्वारा (19-2-2004 से) ''और अनुसूचित जनजातियों'' शब्दों का लोप किया गया। (5) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह,-- (क) अनुसूचित जनजातियों के लिए इस संविधान या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि या सरकार के किसी आदेश के अधीन उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन पर निगरानी रखे तथा ऐसे रक्षोपायों के कार्यकरण का मूल्यांकन करे; (ख) अनुसूचित जनजातियों को उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने के सम्बन्ध में विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाँच करे; (ग) अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग ले और उन पर सलाह दे तथा संघ और किसी राज्य के अधीन उनके विकास की प्रगति का मूल्यांकन करे; (घ) उन रक्षोपायों के कार्यकरण के बारे में प्रतिवर्ष और ऐसे अन्य समयों पर, जो आयोग ठीक समझे, राष्ट्रपति को रिपोर्ट प्रस्तुत करे; (ङ) ऐसी रिपोर्टो में उन उपायों के बारे में, जो उन रक्षोपायों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा किए जाने चाहिए, तथा अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण, कल्याण और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अन्य उपायों के बारे में सिफारिश करे; और (च) अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण, कल्याण और विकास तथा उन्नयन के संबंध में ऐसे अन्य कृत्यों का निर्वहन करे जो राष्ट्रपति, संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, नियम द्वारा विनिर्दिष्ट करे। (6) राष्ट्रपति ऐसी सभी रिपोर्टों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और उनके साथ संघ से संबंधित सिफारिशों पर की गई या किए जाने के लिए प्रस्थापित कार्रवाई तथा यदि कोई ऐसी सिफारिश अस्वीकृत की गई है तो अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाला ज्ञापन भी होगा। (7) जहाँ कोई ऐसी रिपोर्ट या उसका कोई भाग, किसी ऐसे विषय से संबंधित है जिसका किसी राज्य सरकार से संबंध है तो ऐसी रिपोर्ट की एक प्रति उस राज्य के राज्यपाल को भेजी जाएगी जो उसे राज्य के विधान-मंडल के समक्ष रखवाएगा और उसके साथ राज्य से संबंधित सिफारिशों पर की गई या किए जाने के लिए प्रस्थापित कार्रवाई तथा यदि कोई ऐसी सिफारिश अस्वीकृत की गई है तो अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाला ज्ञापन भी होगा। (8) आयोग को, खंड (5) के उपखंड (क) में निर्दिष्ट किसी विषय का अन्वेषण करते समय या उपखंड (ख) में निर्दिष्ट किसी परिवाद के बारे में जाँच करते समय, विशिष्टतया निम्नलिखित विषयों के संबंध में, वे सभी शक्तियाँ होंगी, जो वाद का विचारण करते समय सिविल न्यायालय को हैं, अर्थात्‌ : -- (क) भारत के किसी भी भाग से किसी व्यक्ति को समन करना और हाजिर कराना तथा शपथ पर उसकी परीक्षा करना; (ख) किसी दस्तावेज को प्रकट और पेश करने की अपेक्षा करना; (ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य ग्रहण करना; (घ) किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रति की अपयपेक्षा करना; (ङ) साक्षियों और दस्तावेजों की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना; (च) कोई अन्य विषय, जो राष्ट्रपति, नियम द्वारा अवधारित करे। (9) संघ और प्रत्येक राज्य सरकार, अनुसूचित जनजातियों को प्रभावित करने वाले सभी महत्वपूर्ण नीतिगत विषयों पर आयोग से परामर्श करेगी। (5) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह,-- (क) अनुसूचित जनजातियों के लिए इस संविधान या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि या सरकार के किसी आदेश के अधीन उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन पर निगरानी रखे तथा ऐसे रक्षोपायों के कार्यकरण का मूल्यांकन करे; (ख) अनुसूचित जनजातियों को उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने के सम्बन्ध में विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाँच करे; (ग) अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग ले और उन पर सलाह दे तथा संघ और किसी राज्य के अधीन उनके विकास की प्रगति का मूल्यांकन करे; (घ) उन रक्षोपायों के कार्यकरण के बारे में प्रतिवर्ष और ऐसे अन्य समयों पर, जो आयोग ठीक समझे, राष्ट्रपति को रिपोर्ट प्रस्तुत करे; (ङ) ऐसी रिपोर्टों में उन उपायों के बारे में, जो उन रक्षोपायों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा किए जाने चाहिए, तथा अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण, कल्याण और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अन्य उपायों के बारे में सिफारिश करे; और (च) अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण, कल्याण और विकास तथा उन्नयन के संबंध में ऐसे अन्य कृत्यों का निर्वहन करे जो राष्ट्रपति, संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, नियम द्वारा विनिर्दिष्ट करे। (6) राष्ट्रपति ऐसी सभी रिपोर्टो को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और उनके साथ संघ से संबंधित सिफारिशों पर की गई या किए जाने के लिए प्रस्थापित कार्रवाई तथा यदि कोई ऐसी सिफारिश अस्वीकृत की गई है तो अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाला ज्ञापन भी होगा। (7) जहाँ कोई ऐसी रिपोर्ट या उसका कोई भाग, किसी ऐसे विषय से संबंधित है जिसका किसी राज्य सरकार से संबंध है तो ऐसी रिपोर्ट की एक प्रति उस राज्य के राज्यपाल को भेजी जाएगी जो उसे राज्य के विधान-मंडल के समक्ष रखवाएगा और उसके साथ राज्य से संबंधित सिफारिशों पर की गई या किए जाने के लिए प्रस्थापित कार्रवाई तथा यदि कोई ऐसी सिफारिश अस्वीकृत की गई है तो अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाला ज्ञापन भी होगा। (8) आयोग को, खंड (5) के उपखंड (क) में निर्दिष्ट किसी विषय का अन्वेषण करते समय या उपखंड (ख) में निर्दिष्ट किसी परिवाद के बारे में जाँच करते समय, विशिष्टतया निम्नलिखित विषयों के संबंध में, वे सभी शक्तियाँ होंगी, जो वाद का विचारण करते समय सिविल न्यायालय को हैं, अर्थात्‌ :-- (क) भारत के किसी भी भाग से किसी व्यक्ति को समन करना और हाजिर कराना तथा शपथ पर उसकी परीक्षा करना; (ख) किसी दस्तावेज को प्रकट और पेश करने की अपेक्षा करना; (ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य ग्रहण करना; (घ) किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रति की अपयपेक्षा करना; (ङ) साक्षियों और दस्तावेजों की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना; (च) कोई अन्य विषय, जो राष्ट्रपति, नियम द्वारा अवधारित करे। (9) संघ और प्रत्येक राज्य सरकार, अनुसूचित जनजातियों को प्रभावित करने वाले सभी महत्वपूर्ण नीतिगत विषयों पर आयोग से परामर्श करेगी। 342. अनुसूचित जनजातियाँ --(1) राष्ट्रपति, 1[किसी राज्य] 2[या संघ राज्यक्षेत्र] के संबंध में और जहाँ वह3*** राज्य है वहाँ उसके राज्यपाल से 4*** परामर्श करने के पश्चात्‌ 5लोक अधिसूचना द्वारा, उन जनजातियों या जनजाति समुदायों अथवा जनजातियों या जनजाति समुदायों के भागों या उनमें के यूथों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए, 2[यथास्थिति] उस राज्य 2[या संघ राज्यक्षेत्र] के संबंध में अनुसूचित जनजातियाँ समझा जाएगा। (2) संसद, विधि द्वारा, किसी जनजाति या जनजाति समुदाय को अथवा किसी जनजाति या जनजाति समुदाय के भाग या उसमें के यूथ को खंड (1) के अधीन निकाली गई अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी या उसमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है उसके सिवाय उक्त खंड के अधीन निकाली गई अधिसूचना में किसी पश्चात्‌वर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जाएगा। 1 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 11 द्वारा ''राज्य के राज्यपाल या राजप्रमुख से परामर्श करने के पश्चात्‌'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा अंतःस्थापित। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''पहली अनुसूची के भाग क या भाग ख में विनिर्दिष्ट'' शब्दों और अक्षरों का लोप किया गया। 4 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। 5 संविधान (अऩुसूचित जनजातियाँ) आदेश, 1950 (सं.आ. 22), संविधान (अनुसूचित जनजातियाँ) (संघ राज्यक्षेत्र) आदेश, 1951 (सं.आ. 33), संविधान (अंडमान और निकोबार द्वीप) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश, 1959 (सं.आ. 58). संविधान (दादरा और नागर हवेली) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश, 1962 (सं.आ. 65), संविधान (अनुसूचित जनजातियाँ) (उत्तर प्रदेश) आदेश, 1967 (सं.आ.78). संविधान (गोवा, दमण और दीव) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश, 1968 (सं.आ. 82), संविधान (नागालैंड) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश, 1970 (सं.आ. 88) और संविधान (सिक्किम) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश, 1978 (सं.आ. 111) देखिए भाग 17: राजभाषा: अध्याय 1- संघ की भाषा 343. संघ की राजभाषा--(1) संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय रूप होगा। (2) खंड (1) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से पन्द्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था: परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश1 द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा। (3) इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, संसद उक्त पन्द्रह वर्ष की अवधि के पश्चात्‌, विधि द्वारा-- (क) अंग्रेजी भाषा का, या (ख) अंकों के देवनागरी रूप का, ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ। 344. राजभाषा के संबंध में आयोग और संसद की समिति--(1) राष्ट्रपति, इस संविधान के प्रारंभ से पाँच वर्ष की समाप्ति पर और तत्पश्चात्‌ ऐसे प्रारंभ से दस वर्ष की समाप्ति पर, आदेश द्वारा, एक आयोग गठित करेगा जो एक अध्यक्ष और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिनको राष्ट्रपति नियुक्त करे और आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी। (2) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को-- (क) संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग, (ख) संघ के सभी या किन्ही शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्बंधनों, (ग) अनुच्छेद 348 में उल्लिखित सभी या किन्हीं प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा, (घ) संघ के किसी एक या अधिक विनिर्दिष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने वाले अंकों के रूप, (ङ) संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्रादि की भाषा और उनके प्रयोग के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्देशित किए गए किसी अन्य विषय, के बारे में सिफारिश करे। (3) खंड (2) के अधीन अपनी सिफारिशें करने में, आयोग भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और ज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के संबंध में अधिहन्दी भाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत वों और हितों का सम्यक्‌ पयान रखेगा। (4) एक समिति गठित की जाएगी जो तीस सदस्यों से मिलकर बनेगी जिनमें से बीस लोक सभा के दस्य होंगे और दस राज्य सभा के सदस्य होंगे जो क्रमशः लोक सभा के सदस्यों और राज्य सभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित होंगे। 1 सं.आ. 41 देखिए। (5) समिति का यह कर्तव्य होगा कि वह खंड (1) के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों की परीक्षा करे और राष्ट्रपति को उन पर अपनी राय के बारे में प्रतिवेदन दे। (6) अनुच्छेद 343 में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति खंड (5) में निर्दिष्ट प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात्‌ उस संपूर्ण प्रतिवेदन के या उसके किसी भाग के अनुसार निदेश दे सकेगा। भाग 17: राजभाषा: अध्याय 2- प्रादेशिक भाषाएँ 345. राज्य की राजभाषा या राजभाषाएँ--अनुच्छेद 346 और अनुच्छेद 347 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिन्दी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के प्ररूप में अंगीकार कर सकेगा: परन्तु जब तक राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था। 346. एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा--संघ में शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने के लिए तत्समय प्राधिकृत भाषा, एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच तथा किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा होगी: परन्तु यदि दो या अधिक राज्य यह करार करते हैं कि उन राज्यों के बीच पत्रादि की राजभाषा हिन्दी भाषा होगी तो ऐसे पत्रादि के लिए उस भाषा का प्रयोग किया जा सकेगा। 347. किसी राज्य की जनसंख्‍या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध--यदि इस निमित्त मांग किए जाने पर राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य की जनसंख्‍या का पर्याप्त भाग यह चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राज्य द्वारा मान्यता दी जाए तो वह निदेश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग में ऐसे प्रयोजन के लिए, जो वह विनिर्दिष्ट करे, शासकीय मान्यता दी जाए। भाग 17: राजभाषा: अध्याय 3- उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों आदि की भाषा 348. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों, विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा--(1) इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक-- (क) उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ अंग्रेजी भाषा में होंगी, (ख) (i) संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन में पुरःस्थापित किए जाने वाले सभी विधेयकों या प्रस्तावित किए जाने वाले उनके संशोधनों के, (ii) संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा पारित सभी अधिनियमों के और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल 1*** द्वारा प्रख्‍यापित सभी अपयादेशों के, और (iii) इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन निकाले गए या बनाए गए सभी आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों के, प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे। (2) खंड (1) के उपखंड (क) में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का राज्यपाल 1*** राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्‍य स्थान उस राज्य में है, हिन्दी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा : परन्तु इस खंड की कोई बात ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश को लागू नहीं होगी। (3) खंड (1) के उपखंड (ख) में किसी बात के होते हुए भी, जहाँ किसी राज्य के विधान-मंडल ने, उस विधान-मंडल में पुरःस्थापित विधेयकों में या उसके द्वारा पारित ओंधनियमों में अथवा उस राज्य के राज्यपाल 1*** द्वारा प्रख्‍यापित अध्यादेशों में अथवा उस उपखंड के पैरा (ii) में निर्दिष्ट किसी आदेश, नियम, विनियम या उपविधि में प्रयोग के लिए अँग्रेजी भाषा से भिन्न कोई भाषा विहित की है वहाँ उस राज्य के राजपत्र में उस राज्य के राज्यपाल1*** के प्राधिकार से प्रकाशित अँग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद इस अनुच्छेद के अधीन उसका अँग्रेजी भाषा में प्राधिकृत पाठ समझा जाएगा। 349. भाषा से संबंधित कुछ विधियाँ अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रक्रिया--इस संविधान के प्रारंभ से पन्द्रह वर्ष की अवधि के दौरान, अनुच्छेद 348 के खंड (1) में उल्लिखित किसी प्रयोजन के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा के लिए उपबंध करने वाला कोई विधेयक या संशोधन संसद के किसी सदन में राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना पुरःस्थापित या प्रस्तावित नहीं किया जाएगा और राष्ट्रपति किसी ऐसे विधेयक को पुरःस्थापित या किसी ऐसे संशोधन को प्रस्तावित किए जाने की मंजूरी अनुच्छेद 344 के खंड (1) के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों पर और उस अनुच्छेद के खंड (4) के अधीन गठित समिति के प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात्‌ ही देगा, अन्यथा नहीं। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। भाग 17: राजभाषा: अध्याय 4- विशेष निदेश 350. व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयोग की जाने वाली भाषा--प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा। 1[350क. प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ -- प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निदेश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबंध सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक या उचित समझता है। 350ख. भाषाई अल्पसंख्‍यक-वर्गों के लिए विशेष अधिकारी--(1) भाषाई अल्पसंवयक-वर्गों के लिए एक विशेष अधिकारी होगा जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा। (2) विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह इस संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंवयक-वर्गों के लिए उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन विषयों के संबंध में ऐसे अंतरालों पर जो राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और संबंधित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा।] 351. हिन्दी भाषा के विकास के लिए निदेश--संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्‍यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 21 द्वारा अंतःस्थापित। भाग 18: आपात उपबंध 352. आपात की उद्‍घोषणा--(1) यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि गंभीर आपात विद्यमान है जिसे युद्ध या बाह्य आक्रमण या 1[सशस्त्र विद्रोह] के कारण भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है तो वह उद्‍घोषणा द्वारा 2[संपूर्ण भारत या उसके राज्यक्षेत्र के ऐसे भाग के संबंध में जो उद्‍घोषणा में विनिर्दिष्ट किया जाए] इस आशय की घोषणा कर सकेगा। 3[स्पष्टीकरण--यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि युद्ध या वाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह का संकट सन्निकट है तो यह घोषित करने वाली आपात की उद्‍घोषणा कि युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है, युद्ध या ऐसे किसी आक्रमण या विद्रोह के वास्तव में होने से पहले भी की जा सकेगी। 4[(2) खंड (1) के अधीन की गई उद्‍घोषणा में किसी पश्चात्‌‌वर्ती उद्‍घोषणा द्वारा परिवर्तन किया जा सकेगा या उसको वापस लिया जा सकेगा। (3) राष्ट्रपति, खंड (1) के अधीन उद्‍घोषणा या ऐसी उद्‍घोषणा में परिवर्तन करने वाली उद्‍घोषणा तब तक नहीं करेगा जब तक संघ के मंत्रिमंडल का (अर्थात्‌ उस परिषद का जो अनुच्छेद 75 के अधीन प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल स्तर के अन्य मंत्रियों से मिलकर बनती है) यह विनिश्चय कि ऐसी उद्‍घोषणा की जाए, उसे लिखित रूप में संसूचित नहीं किया जाता है। (4) इस अनुच्छेद के अधीन की गई प्रत्येक उद्‍घोषणा संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी और जहाँ वह पूर्ववर्ती उद्‍घोषणा को वापस लेने वाली उद्‍घोषणा नहीं है वहाँ वह एक मास की समाप्ति पर, यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है तो, प्रवर्तन में नहीं रहेगी: परन्तु यदि ऐसी कोई उद्‍घोषणा (जो पूर्ववर्ती उद्‍घोषणा को वापस लेने वाली उद्‍घोषणा नहीं है) उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है या लोक सभा का विघटन इस खंड में निर्दिष्ट एक मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्‍घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्‍घोषणा के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो, उद्‍घोषणा उस तारीख से जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात्‌ प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्‍घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है। (5) इस प्रकार अनुमोदित उद्‍घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, खंड (4) के अधीन उद्‍‌घोषणा का अनुमोदन करने वाले संकल्पों में से दूसरे संकल्प के पारित किए जाने की तारीख से छह मास की अवधि की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी: परन्तु यदि और जितनी बार ऐसी उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है तो और उतनी बार वह उद्‍घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, उस तारीख से जिसको वह इस खंड के अधीन अन्यथा प्रवर्तन में नहीं रहती, छह मास की और अवधि तक प्रवृत्त बनी रहेगी : परन्तु यह और कि यदि लोक सभा का विघटन छह मास की ऐसी अवधि के दौरान हो जाता है और ऐसी उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उक्त अवधि के दौरान पारित नहीं किया गया है तो, उद्‍घोषणा उस तारीख से जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात्‌ प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है। 1 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 37 द्वारा2 (20-6-1979 से) ''आभ्यंतरिक अशान्ति'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 48 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित । 3 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 37 द्वारा (20-6-1979 से) अंतःस्थापित। 4 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 37 द्वारा (20-6-1979 से) खंड (2), खंड (2क) और खंड (3) के स्थान पर प्रतिस्थापित। (6) खंड (4) और खंड (5) के प्रयोजनों के लिए, संकल्प संसद के किसी सदन द्वारा उस सदन की कुल सदस्य संख्‍या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा ही पारित किया जा सकेगा। (7) पूर्वगामी खंडों में किसी बात के होते हुए भी, यदि लोक सभा खंड (1) के अधीन की गई उद्‍घोषणा ऐसी उद्‍घोषणा में परिवर्तन करने वाली उद्‌घोषणा का, यथास्थिति, अननुमोदन या उसे प्रवृत्त बनाए रखने का अननुमोदन करने वाला संकल्प पारित कर देती है तो राष्ट्रपति ऐसी उद्‍घोषणा को वापस ले लेगा। (8) जहाँ खंड (1) के अधीन की गई उद्‍घोषणा या ऐसी उद्‍घोषणा में परिवर्तन करने वाली उद्‍घोषणा का, यथास्थिति, अननुमोदन या उसको प्रवृत्त बनाए रखने का अननुमोदन करने वाले संकल्प को प्रस्तावित करने के अपने आशय की सूचना लोक सभा की कुल सदस्य संख्‍या के कम से कम दसवें भाग द्वारा हस्ताक्षर करके लिखित रूप में, -- (क) यदि लोक सभा सत्र में है तो अध्‍यक्ष को, या (ख) यदि लोक सभा सत्र में नहीं है तो राष्ट्रपति को, दी गई है वहाँ ऐसे संकल्प पर विचार करने के परियोजन के लिए लोक सभा की विशेष बैठक, यथास्थिति, अध्‍यक्ष या राष्ट्रपति को ऐसी सूचना प्राप्त होने की तारीख से चौदह दिन के भीतर की जाएगी। 1[2[(9)] इस अनुच्छेद द्वारा राष्ट्रपति को प्रदत्त शक्ति के अंतर्गत, युद्ध या बाह्य आक्रमण या 3[सशस्त्र विद्रोह] के अथवा युद्ध या बाह्य आक्रमण या 3[सशस्त्र विद्रोह] का संकट सन्निकट होने के विभिन्न आधारों पर विभिन्न उद्‍घोषणाएँ करने की शक्ति होगी चाहे राष्ट्रपति ने खंड (1) के अधीन पहले ही कोई उद्‍घोषणा की है या नहीं और ऐसी उद्‍घोषणा परिवर्तन में है या नहीं। 4* * * * 353. आपात की उद्‍घोषणा का प्रभाव--जब आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है तब-- (क) संविधान में किसी बात के होते हुए भी, संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को इस बारे में निदेश देने तक होगा कि वह राज्य अपनी कार्यपालिका शक्ति का किस रीति से प्रयोग करे; (ख) किसी विषय के संबंध में विधियाँ बनाने की संसद की शक्ति के अंतर्गत इस बात के होते हुए भी कि वह संघ सूची में प्रगणित विषय नहीं है, ऐसी विधियाँ बनाने की शक्ति होगी जो उस विषय के संबंध में संघ को या संघ के अधिकारियों और प्राधिकारियों को शक्तियाँ प्रदान करती हैं और उन पर कर्तव्य अधिरोपित करती हैं या शक्तियों का प्रदान किया जाना और कर्तव्यों का अधिरोपित किया जाना प्राधिकृत करती है : 5[परन्तु जहाँ आपात की उद्‍घोषणा भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग में परिवर्तन में है वहाँ यदि और जहाँ तक भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा, भारत के राज्यक्षेत्र के उस भाग में या उसके संबंध में, जिसमें आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है, होने वाले क्रियाकलाप के कारण संकट में है तो और वहाँ तक,-- (i) खंड (क) के अधीन निदेश देने की संघ की कार्यपालिका शक्ति का, और (ii) खंड (ख) के अधीन विधि बनाने की संसद की शक्ति का, विस्तार किसी ऐसे राज्य पर भी होगा जो उस राज्य से भिन्न है जिसमें या जिसके किसी भाग में आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में हैं। 354. जब आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है तब राजस्वों के वितरण संबंधी उपबंधों का लागू होना--(1) जब आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है तब राष्ट्रपति, आदेश द्वारा, यह निदेश दे सकेगा कि इस संविधान के अनुच्छेद 268 से अनुच्छेद 279 के सभी या कोई उपबंध ऐसी किसी अवधि के लिए, जो उस आदेश में विनिर्दिष्ट की जाए और जो किसी भी दशा में उस वित्तीय वर्ष की समाप्ति से आगे नहीं बढ़ेगी, जिसमें ऐसी उद्‍घोषणा प्रवर्तन में नहीं रहती है, ऐसे अपवादों या उपान्तरणों के अधीन रहते हुए प्रभावी होंगे जो वह ठीक समझे। 1 संविधान (अडतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 5 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) अंतःस्थापित । 2 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 37 द्वारा (20-6-1979 से) खंड (4) को खंड (9) के रूप में पुनःसंख्‍यांकित किया गया। 3 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 37 द्वारा (20-6-1979 से) ''आभ्यंतरिक अशान्ति'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 37 द्वारा (20-6-1979 से) खंड (5) का लोप किया गया। 5 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 49 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित। (2) खंड (1) के अधीन किया गया प्रत्येक आदेश, किए जाने के पश्चात्‌ यथाशक्य शीघ्र, संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखा जाएगा। 355. बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति से राज्य की संरक्षा करने का संघ का कर्तव्य--संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशान्ति से प्रत्येक राज्य की संरक्षा करे और प्रत्येक राज्य की सरकार का इस संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया जाना सुनिश्चित करे। 356. राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में उपबंध--(1) यदि राष्ट्रपति का किसी राज्य के राज्यपाल 1*** से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा, यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति उद्‍घोषणा द्वारा— (क) उस राज्य की सरकार के सभी या कोई कृत्य और 2[राज्यपाल] में या राज्य के विधान-मंडल से भिन्न राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य सभी या कोई शक्तियाँ अपने हाथ में ले सकेगा; (ख) यह घोषणा कर सकेगा कि राज्य के विधान-मंडल की शक्तियाँ संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोक्तव्य होंगी; (ग) राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी से संबंधित इस संविधान के किन्हीं उपबंधों के प्रवर्तन को पूर्णतः या भागतः निलंबित करने के लिए उपबंधों सहित ऐसे आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध कर सकेगा जो उद्‍घोषणा के उद्देश्यों को प्रभावी करने के लिए राष्ट्रपति को आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों: परन्तु इस खंड की कोई बात राष्ट्रपति को उच्च न्यायालय में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य किसी शक्ति को अपने हाथ में लेने या उच्च न्यायालयों से संबंधित इस संविधान के किसी उपबंध के प्रवर्तन को पूर्णतः या भागतः निलंबित करने के लिए प्राधिकृत नहीं करेगी। (2) ऐसी कोई उद्‍घोषणा किसी पश्चात्‌वर्ती उद्‍घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या उसमें परिवर्तन किया जा सकेगा। (3) इस अनुच्छेद के अधीन की गई प्रत्येक उद्‌घोषणा संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी और जहाँ वह पूर्ववर्ती उद्‍घोषणा को वापस लेने वाली उद्‍घोषणा नहीं है वहाँ वह दो मास की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है: परन्तु यदि ऐसी कोई उद्‍घोषणा (जो पूर्ववर्ती उद्‍घोषणा को वापस लेने वाली उद्‍घोषणा नहीं है) उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है या लोक सभा का विघटन इस खंड में निर्दिष्ट दो मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्‍घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्‍घोषणा के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो, उद्‍घोषणा उस तारीख से जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात्‌ प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्‍घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है। (4) इस प्रकार अनुमोदित उद्‍घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, 3[ऐसी उद्‍घोषणा के किए जाने की तारीख से छह मास] की अवधि की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी : 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''यथास्थिति, राज्यपाल या राजप्रमुख'' शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 38 द्वारा (20-6-1979 से) ''खंड (3) के अधीन उद्‍घोषणा का अनुमोदन करने वाले संकल्पों में से दूसरे के पारित हो जाने की तारीख से एक वर्ष'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 50 द्वारा (3-1-1977 से) मूल शब्द ''छह मास'' के स्थान पर ''एक वर्ष'' शब्द प्रतिस्थापित किए गए थे। (2) खंड (1) के अधीन किया गया प्रत्येक आदेश, किए जाने के पश्चात्‌ यथाशक्य शीघ्र, संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखा जाएगा। परन्तु यदि और जितनी बार ऐसी उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है तो और उतनी बार वह उद्‍घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, उस तारीख से जिसको वह इस खंड के अधीन अन्यथा प्रवर्तन में नहीं रहती है, 1[छह मास] की अवधि तक प्रवृत्त बनी रहेगी, किन्तु ऐसी उद्‍घोषणा किसी भी दशा में तीन वर्ष से अधिक प्रवृत्त नहीं रहेगी: परन्तु यह और कि यदि लोक सभा का विघटन 2[छह मास] की ऐसी अवधि के दौरान हो जाता है और ऐसी उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उक्त अवधि के दौरान पारित नहीं किया गया है तो, उद्‍घोषणा उस तारीख से, जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात्‌ प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है: 2[परन्तु यह भी कि पंजाब राज्य की बाबत 11मई, 1987 को खंड (1) के अधीन की गई उद्‌घोषणा की दशा में, इस खंड के पहले परन्तुक में ''तीन वर्ष'' के प्रति निर्देश का इस प्रकार अर्थ लगाया जाएगा मानो वह 3[पांच वर्ष] के प्रति निर्देश हो। 4[(5) खंड (4) में किसी बात के होते हुए भी, खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्‍घोषणा के किए जाने की तारीख से एक वर्ष की समाप्ति से आगे किसी अवधि के लिए ऐसी उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प संसद के किसी सदन द्वारा तभी पारित किया जाएगा जब-- (क) ऐसे संकल्प के पारित किए जाने के समय आपात की उद्‍घोषणा, यथास्थिति, अथवा संपूर्ण भारत में संपूर्ण राज्य या उसके किसी भाग में प्रवर्तन में है; और (ख) निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर देता है कि ऐसे संकल्प में विनिर्दिष्ट अवधि के दौरान खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्‍घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखना, संबंधित राज्य की विधान सभा के साधारण निर्वाचन कराने में कठिनाइयों के कारण, आवश्यक है: 5[परन्तु इस खंड की कोई बात पंजाब राज्य की बाबत 11 मई, 1987 को खंड (1) के अधीन की गई उद्‍घोषणा को लागू नहीं होगी। 357. अनुच्छेद 356 के अधीन की गई उद्‍घोषणा के अधीन विधायी शक्तियों का प्रयोग--(1) जहाँ अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्‍घोषणा द्वारा यह घोषणा की गई है कि राज्य के विधान-मंडल की शक्तियाँ संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोक्तव्य होंगी वहाँ-- (क) राज्य के विधान-मंडल की विधि बनाने की शक्ति राष्ट्रपति को प्रदान करने की और इस प्रकार प्रदत्त शक्ति का किसी अन्य प्राधिकारी को, जिसे राष्ट्रपति इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, ऐसी शर्तों के अधीन, जिन्हें राष्ट्रपति अधिरोपित करना ठीक समझे, प्रत्यायोजन करने के लिए राष्ट्रपति को प्राधिकृत करने की संसद को, (ख) संघ या उसके अधिकारियों और प्राधिकारियों को शक्तियाँ प्रदान करने या उन पर कर्तव्य अधिरोपित करने के लिए अथवा शक्तियों का प्रदान किया जाना या कर्तव्यों का अधिरोपित किया जाना प्राधिकृत करने के लिए, विधि बनाने की संसद को अथवा राष्ट्रपति को या ऐसे अन्य प्राधिकारी को, जिसमें ऐसी विधि बनाने की शक्ति उपखंड (क) के अधीन निहित है, 1 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 38 द्वारा (20-6-1979 से) ''खंड (3) के अधीन उद्‍घोषणा का अनुमोदन करने वाले संकल्पों में से दूसरे के पारित हो जाने की तारीख से एक वर्ष'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 50 द्वारा (3-1-1977 से) ''छह मास'' मूल शब्द के स्थान पर ''एक वर्ष'' शब्द प्रतिस्थापित किए गए थे। 2 संविधान (चौसठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1990 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित। 3 संविधान (सड़सठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1990 की धारा 2 द्वारा और तत्पश्चात्‌ संविधान (अड़सठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1991 की धारा 2 द्वारा संशोधित होकर वर्तमान रूप में आया। 4 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 38 द्वारा (20-6-1979 से) खंड 5 के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविधान (अड़तीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 6 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) खंड (5) अंतःस्थापित किया गया था। 5 संविधान (तिरसठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1989 की धारा 2 द्वारा (6-1-1990 से) लोप किया गया जिसे संविधान (चौसठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1990 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित किया गया था। (ग) जब लोक सभा सत्र में नहीं है तब राज्य की संचित निधि में से व्यय के लिए, संसद की मंजूरी लंबित रहने तक ऐसे व्यय के प्राधिकृत करने की राष्ट्रपति को, क्षमता होगी। 1[(2) राज्य के विधान-मंडल की शक्ति का प्रयोग करते हुए संसद द्वारा, अथवा राष्ट्रपति या खंड (1) के उपखंड (क) में निर्दिष्ट अन्य प्राधिकारी द्वारा, बनाई गई ऐसी विधि, जिसे संसद अथवा राष्ट्रपति या ऐसा अन्य प्राधिकारी अनुच्छेद 356 के अधीन की गई उद्‍घोषणा के अभाव में बनाने के लिए सक्षम नहीं होता, उद्‍घोषणा के प्रवर्तन में न रहने के पश्चात्‌ तब तक प्रवृत्त बनी रहेगी जब तक सक्षम विधान-मंडल या अन्य प्राधिकारी द्वारा उसका परिवर्तन या निरसन या संशोधन नहीं कर दिया जाता है। 358. आपात के दौरान अनुच्छेद 19 के उपबंधों का निलंबन--2[(1)] 3[जब युद्ध या बाह्य आक्रमण के कारण भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा के संकट में होने की घोषणा करने वाली आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है] तब अनुच्छेद 19 की कोई बात भाग 3 में यथा परिभाषित राज्य की कोई ऐसी विधि बनाने की या कोई ऐसी कार्यपालिका कार्रवाई करने की शक्ति को, जिसे वह राज्य उस भाग में अंतर्विष्ट उपबंधों के अभाव में बनाने या करने के लिए सक्षम होता, निर्र्बंधित नहीं करेगी, किन्तु इस प्रकार बनाई गई कोई विधि उद्‍घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर अक्षमता की मात्रा तक उन बातों के सिवाय तुरन्त प्रभावहीन हो जाएगी, जिन्हें विधि के इस प्रकार प्रभावहीन होने के पहले किया गया है या करने का लोप किया गया है: 4[परन्तु 5[जहाँ आपात की ऐसी उद्‍घोषणा] भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग में प्रवर्तन में है वहाँ, यदि और जहाँ तक भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा, भारत के राज्यक्षेत्र के उस भाग में या उसके संबंध में, जिसमें आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है, होने वाले क्रियाकलाप के कारण संकट में है तो और वहाँ तक, ऐसे राज्य या संघ राज्यक्षेत्र में या उसके संबंध में, जिसमें या जिसके किसी भाग में आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में नहीं है, इस अनुच्छेद के अधीन ऐसी कोई विधि बनाई जा सकेगी या ऐसी कोई कार्यपालिका कार्रवाई की जा सकेगी।] 6[(2) खंड (1) की कोई बात,-- (क) किसी ऐसी विधि को लागू नहीं होगी जिसमें इस आशय का उल्लेख अंतर्विष्ट नहीं है कि ऐसी विधि उसके बनाए जाने के समय प्रवृत्त आपात की उद्‍घोषणा के संबंध में है; या (ख) किसी ऐसी कार्यपालिका कार्रवाई को लागू नहीं होगी जो ऐसा उल्लेख अंतर्विष्ट करने वाली विधि के अधीन न करके अन्यथा की गई है। 359. आपात के दौरान भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन का निलबंन--(1) जहाँ आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है वहाँ राष्ट्रपति, आदेश द्वारा यह घोषणा कर सकेगा कि 7[(अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 को छोड़कर) भाग 3 द्वारा प्रदत्त ऐसे अधिकारों] को प्रवर्तित कराने के लिए, जो उस आदेश में उल्लिखित किए जाएँ, किसी न्यायालय को समावेदन करने का अधिकार और इस प्रकार उल्लिखित अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए किसी न्यायालय में लंबित सभी कार्यवाहियाँ उस अवधि के लिए जिसके दौरान उद्‍घोषणा प्रवृत्त रहती है या उससे लघुतर ऐसी अवधि के लिए जो आदेश में विनिर्दिष्ट की जाए, निलंबित रहेंगी। 1 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 51 द्वारा (3-1-1977 से) खंड (2) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 39 द्वारा (20-6-1979 से) अनुच्छेद 358 को उसके खंड (1) के रूप में पुनःसंख्‍यांकित किया गया। 3 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 39 द्वारा (20-6-1979 से) ''जब आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है'' शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 52 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित । 5 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 39 द्वारा (20-6-1979 से) ''जब आपात की उद्‍घोषणा'' शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। 6 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 39 द्वारा (20-6-1979 से) अंतःस्थापित। 7 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 40 द्वारा (20-6-1979 से) ''भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 1[(1क) जब 2[(अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 को छोड़कर) भाग 3 द्वारा प्रदत्त किन्हीं अधिकारों] को उल्लिखित करने वाला खंड (1) के अधीन किया गया आदेश प्रवर्तन में है तब उस भाग में उन अधिकारों को प्रदान करने वाली कोई बात उस भाग में यथापरिभाषित राज्य की कोई ऐसी विधि बनाने की या कोई ऐसी कार्यपालिका कार्रवाई करने की शक्ति को, जिसे वह राज्य उस भाग में अंतर्विष्ट उपबंधों के अभाव में बनाने या करने के लिए सक्षम होता, निर्र्बंधित नहीं करेगी, किन्तु इस प्रकार बनाई गई कोई विधि पूर्वोक्त आदेश के प्रवर्तन में न रहने पर अक्षमता की मात्रा तक उन बातों के सिवाय तुरन्त प्रभावहीन हो जाएगी, जिन्हें विधि के इस प्रकार प्रभावहीन होने के पहले किया गया है या करने का लोप किया गया है : 3[परन्तु जहाँ आपात की उद्‍घोषणा भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग में प्रवर्तन में है वहाँ, यदि और जहाँ तक भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा, भारत के राज्यक्षेत्र के उस भाग में या उसके संबंध में, जिसमें आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है, होने वाले क्रियाकलाप के कारण संकट में है तो और वहाँ तक, ऐसे राज्य या संघ राज्यक्षेत्र में या उसके संबंध में, जिसमें या जिसके किसी भाग में आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में नहीं है, इस अनुच्छेद के अधीन ऐसी कोई विधि बनाई जा सकेगी या ऐसी कोई कार्यपालिका कार्रवाई की जा सकेगी।] 4[(1ख) खंड (1क) की कोई बात-- (क) किसी ऐसी विधि को लागू नहीं होगी जिसमें इस आशय का उल्लेख अंतर्विष्ट नहीं है कि ऐसी विधि उसके बनाए जाने के समय प्रवृत्त आपात की उद्‍घोषणा के संबंध में है; या (ख) किसी ऐसी कार्यपालिका कार्रवाई को लागू नहीं होगी जो ऐसा उल्लेख अंतर्विष्ट करने वाली विधि के अधीन न करके अन्यथा की गई है। (2) पूर्वोक्त रूप में किए गए आदेश का विस्तार भारत के संपूर्ण राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग पर हो सकेगा : 5[परन्तु जहाँ आपात की उद्‍घोषणा भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग में प्रवर्तन में है वहाँ किसी ऐसे आदेश का विस्तार भारत के राज्यक्षेत्र के किसी अन्य भाग पर तभी होगा जब राष्ट्रपति, यह समाधान हो जाने पर कि भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा, भारत के राज्यक्षेत्र के उस भाग में या उसके संबंध में, जिसमें आपात की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है, होने वाले क्रियाकलाप के कारण संकट में है, ऐसा विस्तार आवश्यक समझता है।] (3) खंड (1) के अधीन किया गया प्रत्येक आदेश, किए जाने के पश्चात्‌ यथाशक्य, संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखा जाएगा। 6359क.[ इस भाग का पंजाब राज्य को लागू होना--संविधान (तिरसठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1989 की धारा 3 द्वारा (6-1-1990 से) निरसित]। 360. वित्तीय आपात के बारे में उपबंध--(1) यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिससे भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व या प्रत्यय संकट में है तो वह उद्‍घोषणा द्वारा इस आशय की घोषणा कर सकेगा। 7[(2) खंड (1) के अधीन की गई उद्‍घोषणा-- 1 संविधान (अड़तीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 7 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) अंतःस्थापित । 2 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 40 द्वारा (20-6-1979 से) ''भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 53 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित । 4 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 40 द्वारा (20-6-1979 से) अंतःस्थापित। 5 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 53 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित। 6 संविधान (उनसठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1988 की धारा 40 द्वारा अंतःस्थापित। यह इस अधिनियम के प्रारंभ से, अर्थात्‌ 1988 के मार्च के तीसवें दिन से दो वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ प्रवृत्त नहीं रहेगी। 7 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 41 द्वारा (20-6-1979 से) खंड (2) के स्थान पर प्रतिस्थापित। (क) किसी पश्चात्‌‌वर्ती उद्‍घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या परिवर्तित की जा सकेगी; (ख) संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी; (ग) दो मास की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है: परन्तु यदि ऐसी कोई उद्‍घोषणा उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है या लोकसभा का विघटन उपखंड (ग) में निर्दिष्ट दो मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्‌घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्‌घोषणा के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो उद्‌घोषणा उस तारीख से, जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात्‌ प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्‍घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है। (3) उस अवधि के दौरान, जिसमें खंड (1) में उल्लिखित उद्‍घोषणा प्रवृत्त रहती है, संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को वित्तीय औचित्य संबंधी ऐसे सिद्धांतों का पालन करने के लिए निदेश देने तक, जो निदेशों में विनिर्दिष्ट किए जाएँ, और ऐसे अन्य निदेश देने तक होगा जिन्हें राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिए देना आवश्य क और पर्याप्त समझे। (4) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी,-- (क) ऐसे किसी निदेश के अंतर्गत-- (i) किसी राज्य के कार्यकलाप के संबंध में सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग के व्यक्तियों के वेतनों और भत्तों में कमी की अपेक्षा करने वाला उपबंध; (ii) धन विधेयकों या अन्य ऐसे विधेयकों को, जिनको अनुच्छेद 207 के उपबंध लागू होते हैं, राज्य के विधान-मंडल द्वारा पारित किए जाने के पश्चात्‌ राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखने के लिए उपबंध, हो सकेंगे; (ख) राष्ट्रपति, उस अवधि के दौरान, जिसमें इस अनुच्छेद के अधीन की गई उद्‍घोषणा प्रवृत्त रहती है, संघ के कार्यकलाप के संबंध में सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग के व्यक्तियों के, जिनके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश हैं, वेतनों और भत्तों में कमी करने के लिए निदेश देने के लिए सक्षम होगा। 1*** 1 संविधान (अड़तीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 8 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) खंड (5) अंतःस्थापित किया गया था और उसका संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 41 द्वारा (20-6-1979 से) लोप किया गया।

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