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Thursday 3 April 2014

संविधान ५६

भाग 5: संघ: अध्याय 2- संसद साधारण 79. संसद का गठन--संघ के लिए एक संसद‌ होगी जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी जिनके नाम राज्य सभा और लोकसभा होंगे। 80. राज्य सभा की संरचना--(1) 3[4*** राज्य सभा] – (क) राष्ट्रपति द्वारा खंड (3) के उपबंधों के अनुसार नामनिर्देशित किए जाने वाले बारह सदस्यों, और (ख) राज्यों के 5[और संघ राज्यक्षेत्रों के] दो सौ अड़तीस से अनधिक प्रतिनिधियों, से मिलकर बनेगी। (2) राज्यसभा में राज्यों के और 5[संघ राज्यक्षेत्रों के] तिनिधियों द्वारा भरे जाने वाले स्थानों का आबंटन चौथी अनुसूची में इस निमित्त अंतर्विष्ट उपबंधों के अनुसार होगा। (3) राष्ट्रपति द्वारा खंड (1) के उपखंड (क) के अधीन नामनिर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात्‌ : -- साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा। (4) राज्य सभा में प्रत्येक 6*** राज्य के प्रतिनिधियों का निर्वाचन उस राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाएगा। (5) राज्य सभा में 7[संघ राज्यक्षेत्रों] के प्रतिनिधि ऐसी रीति से चुने जाएँगे जो संसद‌ विधि द्वारा विहित करे। 1 देखिए समय-समय पर यथा संशोधित अधिसूचना सं. का.आ.2297, तारीख 3 नवंबर, 1958, भारत का राजपत्र, असाधारण, 1958, भाग 2, अनुभाग 3(ii), पृष्ठ 1315। 2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 14 द्वारा (3-1-1977 से) खंड (4) अंतःस्थापित किया गया और संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा12 द्वारा (20-6-1979 से) उसका लोप किया गया। 3 संविधान (पैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा (1-3-1975 से) ''राज्य सभा'' पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (छत्तीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 5 द्वारा (26-4-1975 से) ''दसवीं अनुसूची के पैरा 4 के उपबंधों के अधीन रहते हुए'' शब्दों का लोप किया गया। 5 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 3 द्वारा जोड़ा गया। 6 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 3 द्वारा ''पहली अनुसूची के भाग क या भाग ख में विनिर्दिष्ट'' शब्दों और अक्षरों का लोप किया गया। 7 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 3 द्वारा ''पहली अनुसूची के भाग ग में विनिर्दिष्ट राज्यों'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 81. लोकसभा की संरचना--(1) अनुच्छेद 331 के उपबंधों के अधीन रहते हुए 3] लोकसभा-- (क) राज्यों में प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने गए 4[पाँच सौ तीस] से अनधिक4[सदस्यों], और (ख) संघ राज्यक्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने के लिए ऐसी रीति से, जो संसद‌ विधि द्वारा उपबंधित करे, चुने हुए 5[बीस] से अधिक [सदस्यों], से मिलकर बनेगी। (2) खंड (1) के उपखंड (क) के प्रयोजनों के लिए,-- (क) प्रत्येक राज्य को लोकसभा में स्थानों का आबंटन ऐसी रीति से किया जाएगा कि स्थानों की संख्‍या से उस राज्य की जनसंख्‍या का अनुपात सभी राज्यों के लिए यथासाध्य एक ही हो, और (ख) प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में ऐसी रीति से विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र की जनसंख्‍या का उसको आबंटित स्थानों की संख्‍या से अनुपात समस्त राज्य में यथासाध्य एक ही हो : 6[परन्तु इस खंड के उपखंड (क) के उपबंध किसी राज्य को लोकसभा में स्थानों के आबंटन के प्रयोजन के लिए तब तक लागू नहीं होंगे जब तक उस राज्य की जनसंख्‍या साठ लाख से अधिक नहीं हो जाती है।] (3) इस अनुच्छेद में, ''जनसंख्‍या'' पद से ऐसी अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना में अभिनिश्चित की गई जनसंख्‍या अभिप्रेत है जिसके सुसंगत आँकड़े प्रकाशित हो गए हैं;] 7[परन्तु इस खंड में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति, जिसके सुसंगत आँकड़े प्रकाशित हो गए हैं, निर्देश का, जब तक सन 8[2026] के पश्चात्‌ की गई पहली जनगणना के सुसंगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं,9[यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह, -- खंड (2) के उपखंड (क) और उस खंड के परन्तुक के प्रयोजनों के लिए 1971 की जनगणना के प्रति निर्देश है; और खंड (2) के उपखंड (ख) के प्रयोजनों के लिए 10[2001] की जनगणना के प्रतिनिर्देश है।]] 82. प्रत्येक जनगणना के पश्चात्‌ पुनः समायोजन--प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर राज्यों को लोकसभा में स्थानों के आबंटन और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजन का ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुनः समायोजन किया जाएगा जो संसद‌ विधि द्वारा अवधारित करे : परन्तु ऐसे पुनः समायोजन से लोकसभा में प्रतिनिधित्व पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक उस समय विद्यमान लोकसभा का विघटन नहीं हो जाता है; परन्तु यह और कि ऐसा पुनः समायोजन उस तारीख से प्रभावी होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे और ऐसे पुनः समायोजन के प्रभावी होने तक लोकसभा के लिए कोई निर्वाचन उन प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों के आधार पर हो सकेगा जो ऐसे पुनः समायोजन के पहले विद्यमान हैं : 11[परन्तु यह और भी कि जब तक सन्‌ 11[2026] के पश्चात्‌ की गई पहली जनगणना के सुसंगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं तब तक इस अनुच्छेद के अधीन ,-- राज्यों को लोकसभा में 1971 की जनगणना के आधार पर पुनः समायोजित स्थानों के आबंटन का; और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजन का, जो 12[2001 की जनगणना के आधार पर पुनः समायोजित किए जाएँ, पुनः समायोजन आवश्यक नहीं होगा।]] 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 4 द्वारा अनुच्छेद 81 और 82 के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (पैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 4 द्वारा (1-3-1975 से) ''अनुच्छेद 331 के उपबंधों के अधीन रहते हुए'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (छत्तीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 5 द्वारा (26-4-1975 से) ''और दसवीं अनुसूची के पैरा 4'' शब्दों और अक्षरों का लोप किया जाएगा। 4 गोवा, दमण और दीव पुनर्गठन अधिनियम, 1987 (1987 का 18) की धारा 63 द्वारा (30-5-1987 से) ''पाँच सौ पच्चीस'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 5 संविधान (इकतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1973 की धारा 2 द्वारा ''पच्चीस सदस्यों'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 6 संविधान (इकतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1973 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित। 7 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 15 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित। 8 संविधान (चौरासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 3 द्वारा (21-2-2002 से) प्रतिस्थापित। 9 संविधान (सतासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 2 द्वारा प्रतिस्थापित। 10 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 16 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित। 11 संविधान (चौरासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 4 द्वारा कुछ शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। 12 संविधान (सतासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 3 द्वारा प्रतिस्थापित। 83. संसद‌ के सदनों का अवधि--(1) राज्य सभा का विघटन नहीं होगा, किन्तु उसके सदस्यों में से यथासंभव निकटतम एक-तिहाई सदस्य, संसद‌ द्वारा विधि द्वारा इस निमित्त किए गए उपबंधों के अनुसार, प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर यथाशक्य शीघ्र निवृत्त हो जाएँगे। (2) लोकसभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से 1[पाँच वर्ष] तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और 1[पाँच वर्ष] की उक्त अवधि की समाप्ति का परिणाम लोकसभा का विघटन होगा; परन्तु उक्त अवधि को, जब आपात की उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है तब, संसद‌ विधि द्वारा, ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और उद्‌घोषणा के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात्‌ उसका विस्तार किसी भी दशा में छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा। 84. संसद‌ की सदस्यता के लिए अर्हता--कोई व्यक्ति संसद‌ के किसी स्थान को भरने के लिए चुने जाने के लिए अर्हित तभी होगा जब— 2[(क) वह भारत का नागरिक है और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार शपथ लेता है या प्रतिज्ञान करता है और उस पर अपने हस्ताक्षर करता है;] (ख) वह राज्य सभा में स्थान के लिए कम से कम तीस वर्ष की आयु का और लोकसभा में स्थान के लिए कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का है; और (ग) उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएँ हैं जो संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस निमित्त विहित की जाएँ। 3[85. संसद‌ के सत्र, सत्रावसान और विघटन--(1) राष्ट्रपति समय-समय पर, संसद‌ के प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए आहूत करेगा, किन्तु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तारीख के बीच छह मास का अंतर नहीं होगा।] (2) राष्ट्रपति, समय-समय पर-- (क) सदनों का या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा; (ख) लोकसभा का विघटन कर सकेगा।] 86. सदनों में अभिभाषण का और उनको संदेश भेजने का राष्ट्रपति का अधिकार --(1) राष्ट्रपति, संसद‌ के किसी एक सदन में या एक साथ समवेत दोनों सदनों में अभिभाषण कर सकेगा और इस प्रयोजन के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा। (2) राष्ट्रपति , संसद‌ में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश, संसद‌ के किसी सदन को भेज सकेगा और जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया है वह सदन उस संदेश द्वारा विचार करने के लिए अपेक्षित विषय पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करेगा। 87. राष्ट्रपति का विशेष अभिभाषण --(1) राष्ट्रपति, 4[लोकसभा के लिए प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात्‌ प्रथम सत्र] के आरंभ में 4[और प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरंभ में] एक साथ समवेत संसद‌ के दोनों सदनों में अभिभाषण करेगा और संसद‌ को उसके आह्वान के कारण बताएगा। (2) प्रत्येक सदन की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों द्वारा ऐसे अभिभाषण में निर्दिष्ट विषयों की चर्चा के लिए समय नियत करने के लिए 5उपबंध किया जाएगा। 88. सदनों के बारे में मंत्रियों और महान्यायवादी के अधिकार -- प्रत्येक मंत्री और भारत के महान्यायवादी को यह अधिकार होगा कि वह किसी भी सदन में, सदनों की किसी संयुक्त बैठक में और संसद‌ की किसी समिति में, जिसमें उसका नाम सदस्य के रूप में दिया गया है, बोले और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले, किन्तु इस अनुच्छेद के आधार पर वह मत देने का हकदार नहीं होगा। संसद के अधिकारी 89. राज्य सभा का सभापति और उपसभापति--(1) भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होगा। 1 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 13 द्वारा (20-6-1979 से) ''छह वर्ष'' शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 17 द्वारा (3-1-1977 से) ''पाँच वर्ष'' मूल शब्दों के स्थान पर ''छह वर्ष'' शब्द प्रतिस्थापित किए गए थे। 2 संविधान (सोलहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 3 द्वारा खंड (क) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 6 द्वारा अनुच्छेद 85 के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 7 द्वारा '' प्रत्येक सत्र'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 5 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 7 द्वारा '' और सदन के अन्य कार्य पर इस चर्चा को अग्रता देने के लिए'' शब्दों का लोप किया गया। (2) राज्य सभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने किसी सदस्य को अपना उपसभापति चुनेगी और जब-जब उपसभापति का पद रिक्त होता है तब-तब राज्य सभा किसी अन्य सदस्य को अपना उपसभापति चुनेगी। 90. उपसभापति का पद रिक्त होना, पद त्याग और पद से हटाया जाना--राज्य सभा के उपसभापति के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य-- (क) यदि राज्य सभा का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा; (ख) किसी भी समय सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और (ग) राज्य सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा : परन्तु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो। 91. सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन करने या सभापति के रूप में कार्य करने की उपसभापति या अन्य व्यक्ति की शक्ति--(1) जब सभापति का पद रिक्त है या ऐसी अवधि में जब उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहा है या उसके कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, तब उपसभापति या यदि उपसभापति का पद भी रिक्त है तो, राज्य सभा का ऐसा सदस्य जिसको राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। (2) राज्य सभा की किसी बैठक से सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो राज्य सभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो राज्य सभा द्वारा अवधारित किया जाए, सभापति के रूप में कार्य करेगा। 92. जब सभापति या उपसभापति को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उसका पीठासीन न होना -- (1) राज्य सभा की किसी बैठक में, जब उपराष्ट्रपति को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब सभापति, या जब उपसभापति को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपसभापति, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 91 के खंड (2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे, यथास्थिति, सभापति या उपसभापति अनुपस्थित है। (2) जब उपराष्ट्रपति को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प राज्य सभा में विचाराधीन है तब सभापति को राज्य सभा में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा, किन्तु वह अनुच्छेद 100 में किसी बात के होते हुए भी ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर, मत देने का बिल्कुल हकदार नहीं होगा। 93. लोकसभा का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष --लोकसभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब लोकसभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी। 94. अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद रिक्त होना, पद त्याग और पद से हटाया जाना -- लोकसभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य -- (क) यदि लोकसभा का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा; (ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य अध्यक्ष है तो उपाध्यक्ष को संबोधित और यदि वह सदस्य उपाध्यक्ष है तो अध्यक्ष को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और (ग) लोकसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा : परन्तु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो: परन्तु यह और कि जब कभी लोकसभा का विघटन किया जाता है तो विघटन के पश्चात्‌ होने वाले लोकसभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त नहीं करेगा। 95. अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का पालन करने या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की उपाध्यक्ष या अन्य व्यक्ति की शक्ति--(1) जब अध्यक्ष का पद रिक्त है तब उपाध्यक्ष, या यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो लोकसभा का ऐसा सदस्य, जिसको राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। (2) लोकसभा की किसी बैठक के अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो लोकसभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो लोकसभा द्वारा अवधारित किया जाए, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा। 96. जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उसका पीठासीन न होना-- (1) लोकसभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का संकल्प विचाराधीन है तब अध्यक्ष, या जब उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपाध्यक्ष, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 95 के खंड (2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनुपस्थित है। (2) जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प लोकसभा में विचाराधीन है तब उसको लोकसभा में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा और वह अनुच्छेद 100 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर प्रथमतः ही मत देने का हकदार होगा, किन्तु मत बराबर होने की दशा में मत देने का हकदार नहीं होगा। 97. सभापति और उपसभापति तथा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के वेतन और भत्ते -- राज्य सभा के सभापति और उपसभापति को तथा लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को, ऐसे वेतन और भत्तों का जो संसद‌, विधि द्वारा, नियत करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतन और भत्तों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, संदाय किया जाएगा। 98. संसद‌ का सचिवालय -- (1) संसद‌ के प्रत्येक सदन का पृथक् सचिवीय कर्मचारिवृंद होगा; परन्तु इस खंड की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह संसद‌ के दोनों सदनों के लिए सम्मिलित पदों के सृजन को निवारित करती है। (2) संसद‌, विधि द्वारा, संसद‌ के प्रत्येक सदन के सचिवीय कर्मचारिवृंद में भर्ती का और नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का विनियमन कर सकेगी। (3) जब तक संसद‌ खंड (2) के अधीन उपबंध नहीं करती है तब तक राष्ट्रपति, यथास्थिति, लोकसभा अध्यक्ष या राज्य सभा के सभापति से परामर्श करने के पश्चात्‌ लोकसभा के या राज्य सभा के सचिवीय कर्मचारिवृंद में भर्ती के और नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों के विनियमन के लिए नियम बना सकेगा और इस प्रकार बनाए गए नियम उक्त खंड के अधीन बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए प्रभावी होंगे। कार्य संचालन 99. सदस्यों द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान--संसद‌ के प्रत्येक सदन का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पहले, राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची के इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा। 100. सदनों में मतदान, रिक्तियों के होते हुए भी सदनों की कार्य करने की शक्ति और गणपूर्ति-- (1) इस संविधान में यथा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, प्रत्येक सदन की बैठक में या सदनों की संयुक्त बैठक में सभी प्रश्नों का अवधारण, अध्यक्ष को अथवा सभापति या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को छोड़कर, उपस्थिति और मत देने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जाएगा। सभापति या अध्यक्ष , अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति प्रथमतः मत नहीं देगा, किन्तु मत बराबर होने की दशा में उसका निर्णायक मत होगा और वह उसका प्रयोग करेगा। (2) संसद के किसी सदन की सदस्यता में कोई रिक्ति होने पर भी, उस सदन को कार्य करने की शक्ति होगी और यदि बाद में यह पता चलता है कि कोई व्यक्ति, जो ऐसा करने का हकदार नहीं था, कार्यवाहियों में उपस्थित रहा है या उसने मत दिया है या अन्यथा भाग लिया है तो भी संसद‌ की कोई कार्यवाही विधिमान्य होगी। (3) जब तक संसद‌ विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक संसद‌ के प्रत्येक सदन का अधिवेशन गठित करने के लिए गणपूर्ति सदन के सदस्यों की कुल संख्‍या का दसवां भाग होगी। (4) यदि सदन के अधिवेशन में किसी समय गणपूर्ति नहीं है तो सभापति या अध्यक्ष अथवा उस रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह सदन को स्थगित कर दे या अधिवेशन को तब तक के लिए निलंबित कर दे जब तक गणपूर्ति नहीं हो जाती है। सदस्यों की निरर्हताएँ 101. स्थानों का रिक्त होना--(1) कोई व्यक्ति संसद‌ के दोनों सदनों का सदस्य नहीं होगा और जो व्यक्ति दोनों सदनों का सदस्य चुन लिया जाता है उसके एक या दूसरे सदन के स्थान को रिक्त करने के लिए संसद‌ विधि द्वारा उपबंध करेगी। (2) कोई व्यक्ति संसद‌ और किसी 1राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन, दोनों का सदस्य नहीं होगा और यदि कोई व्यक्ति संसद‌ और 2[किसी राज्य] के विधान-मंडल के किसी सदन, दोनों का सदस्य चुन लिया जाता है तो ऐसी अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ जो राष्ट्रपति द्वारा बनाए गए नियमों3 में विनिर्दिष्ट की जाए, संसद‌ में ऐसे व्यक्ति का स्थान रिक्त हो जाएगा यदि उसने राज्य के विधान-मंडल में अपने स्थान को पहले ही नहीं त्याग दिया है। (3) यदि संसद‌ के किसी सदन का सदस्य -- (क) 4[अनुच्छेद 102 के खंड (1) या खंड(2)] में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो जाता है, या 5[(ख) यथास्थिति, सभापति या अध्यक्ष को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने स्थान का त्याग कर देता है और उसका त्यागपत्र, यथास्थिति, सभापति या अध्यक्ष द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तो ऐसा होने पर उसका स्थान रिक्त हो जाएगा : 6[परन्तु उपखंड (ख) में निर्दिष्ट त्यागपत्र की दशा में, यदि प्राप्त जानकारी से या अन्यथा और ऐसी जांच करने के पश्चात्‌, जो वह ठीक समझे, यथास्थिति, सभापति या अध्यक्ष का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा त्यागपत्र स्वैच्छिक या असली नहीं है तो वह ऐसे त्यागपत्र को स्वीकर नहीं करेगा।] (4) यदि संसद‌ के किसी सदन का कोई सदस्य साठ दिन की अवधि तक सदन की अनुज्ञा के बिना उसके सभी अधिवेशनों से अनुपस्थित रहता है तो सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकेगा : परन्तु साठ दिन की उक्त अवधि की संगणना करने में किसी ऐसी अवधि को हिसाब में नहीं लिया जाएगा जिसके दौरान सदन सत्रावसित या निरंतर चार से अधिक दिनों के लिए स्थगित रहता है। 102. सदस्यता के लिए निरर्हताएँ--(1) कोई व्यक्ति संसद‌ के किसी सदन का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा -- (क) यदि वह भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर, जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना संसद‌ ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है; (ख) यदि वह विकृतचित्त है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है; (ग) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है; (घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से आर्जित कर ली है या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है; (ङ) यदि वह संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है। 7[स्पष्टीकरण--इस खंड के प्रयोजनों के लिए,] कोई व्यक्ति केवल उस कारण भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है। 8[(2) कोई व्यक्ति संसद‌ के किसी सदन का सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा यदि वह दसवीं अनुसूची के अधीन इस प्रकार निरर्हित हो जाता है।] 9[103. सदस्यों की निरर्हताओं से संबंधित प्रश्नों पर विनिश्चय--(1) यदि यह प्रश्न उठता है कि संसद‌ के किसी सदन का कोई सदस्य अनुच्छेद 102 के खंड (1) में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं तो वह प्रश्न राष्ट्रपति को विनिश्चय के लिए निर्देशित किया जाएगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''पहली अनुसूची के भाग क या भाग ख में विनिर्दिष्ट'' शब्द और अक्षरों का लोप किया गया। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''ऐसे किसी राज्य'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 देखिए, विधि मंत्रालय की अधिसूचना संख्‍या एफ.46/ 50-सी, तारीख 26 जनवरी, 1950, भारत का राजपत्र, असाधारण, पृष्ठ 678 में प्रकाशित समसामयिक सदस्यता प्रतिषेध नियम, 1950। 4 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 2 द्वारा (1-3-1985 से) ''अनुच्छेद 102 के खंड (1)'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 5 संविधान (तैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 2 द्वारा उपखंड (ख) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 6 संविधान (तैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित। 7 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 3 द्वारा (1-3-1985 से) ''(2);स अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 8 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 3 द्वारा (1-3-1985 से) अंतःस्थापित। 9 अनुच्छेद 103, संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 20 द्वारा (3-1-1977 से) और तत्पश्चात्‌ संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 14 द्वारा (20-6-1979 से) संशोधित होकर उपरोक्त रूप में आया। (2) ऐसे किसी प्रश्न पर विनिश्चय करने के पहले राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की राय लेगा और ऐसी राय के अनुसार कार्य करेगा।] 104. अनुच्छेद 99 के अधीन शपथ लेने या प्रतिज्ञान करने से पहले या अर्हित न होते हुए या निरर्हित किए जाने पर बैठने और मत देने के लिए शास्ति--यदि संसद‌ के किसी सदन में कोई व्यक्ति अनुच्छेद 99 की अपेक्षाओं का अनुपालन करने से पहले, या वह जानते हुए कि मैं उसकी सदस्यता के लिए अर्हित नहीं हूं या निरर्हित कर दिया गया हूं या संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों द्वारा ऐसा करने से प्रतिषिद्ध कर दिया गया हूं, सदस्य के रूप में बैठता है या मत देता है तो वह प्रत्येक दिन के लिए, जब वह इस प्रकार बैठता है या मत देता है, पांच सौ रुपए की शास्ति का भागी होगा जो संघ को देय ऋण के रूप में वसूल की जाएगी। संसद‌ और उसके सदस्यों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ 105. संसद‌ के सदनों की तथा उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार आदि--(1) इस संविधान के उपबंधों और संसद‌ की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों और स्थायी आदेशों के अधीन रहते हुए, संसद‌ में वाक्‌‌-स्वातंत्र्य होगा। (2) संसद‌ में या उसकी किसी समिति में संसद‌ के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरूद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और किसी व्यक्ति के विरूद्ध संसद‌ के किसी सदन के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में इस प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी। (3) अन्य बातों में संसद‌ के प्रत्येक सदन की और प्रत्येक सदन के सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ ऐसी होंगी जो संसद‌, समय-समय पर, विधि द्वारा,परिनिश्चित करे और जब तक वे इस प्रकार परिनिश्चित नहीं की जाती हैं तब तक वही होंगी जो संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 15 के प्रवृत्त होने से ठीक पहले उस सदन की और उसके सदस्यों और समितियों की थीं]। (4) जिन व्यक्तियों को इस संविधान के आधार पर संसद‌ के किसी सदन या उसकी किसी समिति में बोलने का और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार है, उनके संबंध में खंड (1), खंड (2) और खंड (3) के उपबंध उसी प्रकार लागू होंगे जिस प्रकार वे संसद के सदस्यों के संबंध में लागू होते हैं। 106. सदस्यों के वेतन और भत्ते--संसद‌ के प्रत्येक सदन के सदस्य ऐसे वेतन और भत्ते, जिन्हें संसद‌, समय-समय पर, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस संबंध में इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे भत्ते, ऐसी दरों से और ऐसी शर्तों पर, जो भारत डोमिनियन की संविधान सभा के सदस्यों को इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले लागू थीं, प्राप्त करने के हकदार होंगे। विधायी प्रक्रिया 107. विधेयकों के पुरःस्थापन और पारित किए जाने के संबंध में उपबंध--(1) धन विधेयकों और अन्य वित्त विधेयकों के संबंध में अनुच्छेद 109 और अनुच्छेद 117 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई विधेयक संसद‌ के किसी भी सदन में आरंभ हो सकेगा। (2) अनुच्छेद 108 और अनुच्छेद 109 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई विधेयक संसद‌ के सदनों द्वारा तब तक पारित किया गया नहीं समझा जाएगा जब तक संशोधन के बिना या केवल ऐसे संशोधनों सहित, जिन पर दोनों सदन सहमत हो गए हैं, उस पर दोनों सदन सहमत नहीं हो जाते हैं। (3) संसद‌ में लंबित विधेयक सदनों के सत्रावसान के कारण व्यपगत नहीं होगा। (4) राज्य सभा में लंबित विधेयक, जिसको लोकसभा ने पारित नहीं किया है, लोकसभा के विघटन पर व्यपगत नहीं होगा। (5) कोई विधेयक, जो लोकसभा में लंबित है या जो लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया है और राज्य सभा में लंबित है, अनुच्छेद 108 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, लोकसभा के विघटन पर व्यपगत हो जाएगा। 108. कुछ दशाओं में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक--(1) यदि किसी विधेयक के एक सदन द्वारा पारित किए जाने और दूसरे सदन को पारेषित किए जाने के पश्चात्‌, -- (क) दूसरे सदन द्वारा विधेयक अस्वीकर कर दिया गया है, या (ख) विधेयक में किए जाने वाले संशोधनों के बारे में दोनों सदन अंतिम रूप से असहमत हो गए हैं, या (ग) दूसरे सदन को विधेयक प्राप्त होने की तारीख से उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना छह मास से अधिक बीत गए हैं, तो उस दशा के सिवाय जिसमें लोकसभा का विघटन होने के कारण विधेयक व्यपगत हो गया है, राष्ट्रपति विधेयक पर विचार-विमर्श करने और मत देने के प्रयोजन के लिए सदनों को संयुक्त बैठक में अधिवेशित होने के लिए आहूत करने के अपने आशय की सूचना, यदि वे बैठक में हैं तो संदेश द्वारा या यदि वे बैठक में नहीं हैं तो लोक अधिसूचना द्वारा देगा : परन्तु उस खंड की कोई बात धन विधेयक को लागू नहीं होगी। (2) छह मास की ऐसा अवधि की गणना करने में, जो खंड (1) में निर्दिष्ट है, किसी ऐसी अवधि को हिसाब में नहीं लिया जाएगा जिसमें उक्त खंड के उपखंड (ग) में निर्दिष्ट सदन सत्रावसित या निरंतर चार से अधिक दिनों के लिए स्थगित कर दिया जाता है। (3) यदि राष्ट्रपति ने खंड (1) के अधीन सदनों को संयुक्त बैठक में अधिवेशित होने के लिए आहूत करने के अपने आशय की सूचना दे दी है तो कोई भी सदन विधेयक पर आगे कार्यवाही नहीं करेगा, किन्तु राष्ट्रपति अपनी अधिसूचना की तारीख के पश्चात्‌ किसी समय सदनों को अधिसूचना में विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिए संयुक्त बैठक में अधिवेशित होने के लिए आहूत कर सकेगा और, यदि वह ऐसा करता है तो, सदन तद्‌नुसार अधिवेशित होंगे। (4) यदि सदनों की संयुक्त बैठक में विधेयक ऐसे संशोधनों सहित, यदि कोई हों, जिन पर संयुक्त बैठक में सहमति हो जाती है, दोनों सदनों के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की कुल संख्‍या के बहुमत द्वारा पारित हो जाता है तो इस संविधान के प्रयोजनों के लिए वह दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया समझा जाएगा: परन्तु संयुक्त बैठक में -- (क) यदि विधेयक एक सदन से पारित किए जाने पर दूसरे सदन द्वारा संशोधनों सहित पारित नहीं कर दिया गया है और उस सदन को, जिसमें उसका आरंभ हुआ था, लौटा नहीं दिया गया है तो ऐसे संशोधनों से भिन्न (यदि कोई हों), जो विधेयक के पारित होने में देरी के कारण आवश्यक हो गए हैं, विधेयक में कोई और संशोधन प्रस्थापित नहीं किया जाएगा; (ख) यदि विधेयक इस प्रकार पारित कर दिया गया है और लौटा दिया गया है तो विधेयक में केवल पूर्वोक्त संशोधन, और ऐसे अन्य संशोधन, जो उन विषयों से सुसंगत हैं जिन पर सदनों में सहमति नहीं हुई है, प्रस्थापित किए जाएँगे, और पीठासीन व्यक्ति का इस बारे में विनिश्चय अंतिम होगा कि कौन से संशोधन इस खंड के अधीन ग्राह्य हैं। (5) सदनों की संयुक्त बैठक में अधिवेशित होने के लिए आहूत करने के अपने आशय की राष्ट्रपति की सूचना के पश्चात्‌, लोकसभा का विघटन बीच में हो जाने पर भी, इस अनुच्छेद के अधीन संयुक्त बैठक हो सकेगी और उसमें विधेयक पारित हो सकेगा। 109. धन विधेयकों के संबंध में विशेष प्रक्रिया--(1) धन विधेयक राज्य सभा में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा। (2) धन विधेयक लोकसभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात्‌ राज्य सभा को उसकी सिफारिशों के लिए पारेषित किया जाएगा और राज्य सभा विधेयक की प्राप्ति की तारीख से चौदह दिन की अवधि के भीतर विधेयक को अपनी सिफारिशों सहित लोकसभा को लौटा देगी और ऐसा होने पर लोकसभा, राज्य सभा की सभी या किन्हीं सिफारिशों को स्वीकर या अस्वीकार कर सकेगी। (3) यदि लोकसभा, राज्य सभा की किसी सिफारिश को स्वीकार कर लेती है तो धन विधेयक राज्य सभा द्वारा सिफारिश किए गए और लोकसभा द्वारा स्वीकार किए गए संशोधनों सहित दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया समझा जाएगा। (4) यदि लोकसभा, राज्यसभा की किसी भी सिफारिश को स्वीकार नहीं करती है तो धन विधेयक, राज्यसभा द्वारा सिफारिश किए गए किसी संशोधन के बिना, दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह लोकसभा द्वारा पारित किया गया था। (5) यदि लोकसभा द्वारा पारित और राज्यसभा को उसकी सिफारिशों के लिए पारेषित धन विधेयक उक्त चौदह दिन की अवधि के भीतर लोकसभा को नहीं लौटाया जाता है तो उक्त अवधि की समाप्ति पर वह दोनों सदनों द्वारा, उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह लोकसभा द्वारा पारित किया गया था। 110. ''धन विधेयक'' की परिभाषा--(1) इस अध्याय के प्रयोजनों के लिए, कोई विधेयक धन विधेयक समझा जाएगा यदि उसमें केवल निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों से संबंधित उपबंध हैं, अर्थात्‌ :-- (क) किसी कर का अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन; (ख) भारत सरकार द्वारा धन उधार लेने का या कोई प्रत्याभूति देने का विनियमन अथवा भारत सरकार द्वारा अपने पर ली गई या ली जाने वाली किन्हीं वित्तीय बाध्यताओं से संबंधित विधि का संशोधन; (ग) भारत की संचित निधि या आकस्मिकता निधि की अभिरक्षा, ऐसी किसी विधि में धन जमा करना या उसमें से धन निकालना; (घ) भारत की संचित निधि में से धन का विनियोग; (ङ) किसी व्यय को भारत की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना या ऐसे धन की अभिरक्षा या उसका निर्गमन अथवा संघ या राज्य के लेखाओं की संपरीक्षा; या (च) भारत की संचित निधि या भारत के लोक लेखे मद्धे धन प्राप्त करना अथवा ऐसे धन की अभिरक्षा या उसका निर्गमन अथवा संघ या राज्य के लेखाओं की संपरीक्षा; या (छ) उपखंड (क) से उपखंड (च) में विनिर्दिष्ट किसी विषय का आनुषंगिक कोई विषय। (2) कोई विधेयक केवल इस कारण धन विधेयक नहीं समझा जाएगा कि वह जुर्मानों या अन्य धनीय शास्तियों के अधिरोपण का अथवा अनुज्ञप्तियों के लिए फीसों की या की गई सेवाओं के लिए फीसों की मांग का या उनके संदाय का उपबंध करता है अथवा इस कारण धन विधेयक नहीं समझा जाएगा कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन का उपबंध करता है। (3) यदि यह प्रश्न उठता है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं तो उस पर लोकसभा के अध्यक्ष का विनिश्चय अंतिम होगा। (4) जब धन विधेयक अनुच्छेद 109 के अधीन राज्य सभा को पारेषित किया जाता है और जब वह अनुच्छेद 111 के अधीन अनुमति के लिए राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तब प्रत्येक धन विधेयक पर लोकसभा के अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण पृष्ठांकित किया जाएगा कि वह धन विधेयक है। 111. विधेयकों पर अनुमति--जब कोई विधेयक संसद‌ के सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है तब वह राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और राष्ट्रपति घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है: परन्तु राष्ट्रपति अनुमति के लिए अपने समक्ष विधेयक प्रस्तुत किए जाने के पश्चात्‌ यथाशीघ्र उस विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है तो, सदनों को इस संदेश के साथ लौटा सकेगा कि वे विधेयक पर या उसके किन्हीं विनिर्दिष्ट उपबंधों पर पुनर्विचार करें और विशिष्टतया किन्हीं ऐसे संशोधनों के पुरःस्थापन की वांछनीयता पर विचार करें जिनकी उसने अपने संदेश में सिफारिश की है और जब विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब सदन विधेयक पर तद्नुसार पुनर्विचार करेंगे और यदि विधेयक सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है और राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है तो राष्ट्रपति उस पर अनुमति नहीं रोकेगा। वित्तीय विषयों के संबंध में प्रक्रिया 112. वार्षिक वित्तीय विवरण--(1) राष्ट्रपति प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में संसद‌ के दोनों सदनों के समक्ष भारत सरकार की उस वर्ष के लिए प्राक्कलित प्राप्तियों और व्यय का विवरण रखवाएगा जिसे इस भाग में ''वार्षिक वित्तीय विवरण'' कहा गया है। (2) वार्षिक वित्तीय विवरण में दिए हुए व्यय के प्राक्कलनों में-- (क) इस संविधान में भारत की संचित निधि पर भारित व्यय के रूप में वर्णित व्यय की पूर्ति के लिए अपेक्षित राशियाँ, और (ख) भारत की संचित निधि में से किए जाने के लिए प्रस्थापित अन्य व्यय की पूर्ति के लिए अपेक्षित राशियाँ, पृथक-पृथक दिखाई जाएँगी और राजस्व लेखे होने वाले व्यय का अन्य व्यय से भेद किया जाएगा। (3) निम्नलिखित व्यय भारत की संचित निधि पर भारित व्यय होगा, अर्थात्‌: -- (क) राष्ट्रपति की उपलब्धियाँ और भत्ते तथा उसके पद से संबंधित अन्य व्यय; (ख) राज्यसभा के सभापति और उपसभापति के तथा लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के वेतन और भत्ते; (ग) ऐसे ऋण भार, जिनका दायित्व भारत सरकार पर है, जिनके अंतर्गत ब्याज, निक्षेप निधि भार और मोचन भार तथा उधार लेने और ऋण सेवा और ऋण मोचन से संबंधित अन्य व्यय हैं; (घ) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को या उनके संबंध में संदेय वेतन, भत्ते और पेंशन; फेडरल न्यायालय के न्यायाधीशों को या उनके संबंध में संदेय पेंशन; उस उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को या उनके संबंध में दी जाने वाली पेंशन, जो भारत के राज्यक्षेत्र के अंतर्गत किसी क्षेत्र के संबंध में का प्रयोग करता है या जो भारत डोमिनियन के राज्यपाल वाले प्रांत के अंतर्गत किसी क्षेत्र के संबंध में इस संविधान के प्रारंभ से पहले किसी भी समय का प्रयोग करता था; (ङ) भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक को, या उसके संबंध में, संदेय वेतन, भत्ते और पेंशन; (च) किसी न्यायालय या माध्यम ओंधकरण के निर्णय, डिक्री या पंचाट की तुष्टि के लिए अपेक्षित राशियाँ; (छ) कोई अन्य व्यय जो इस संविधान द्वारा या संसद‌ द्वारा, विधि द्वारा, इस प्रकार भारित घोषित किया जाता है। 113. संसद‌ में प्राक्कलनों के संबंध में प्रक्रिया--(1) प्राक्कलनों में से जितने प्राक्कलन भारत की संचित निधि पर भारित व्यय से संबंधित हैं वे संसद‌ में मतदान के लिए नहीं रखे जाएँगे, किन्तु इस खंड की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह संसद‌ के किसी सदन में उन प्राक्कलनों में से किसी प्राक्कलन पर चर्चा को निवारित करती है। (2) उक्त प्राक्कलनों में से जितने प्राक्कलन अन्य व्यय से संबंधित हैं वे लोकसभा के समक्ष अनुदानों की माँगों के रूप में रखे जाएँगे और लोकसभा को शक्ति होगी कि वह किसी माँग को अनुमति दे या अनुमति देने से इंकार कर दे अथवा किसी मांग को, उसमें विनिर्दिष्ट रकम को कम करके, अनुमति दे। (3) किसी अनुदान की माँग राष्ट्रपति की सिफारिश पर ही की जाएगी, अन्यथा नहीं। 114. विनियोग विधेयक--(1) लोकसभा द्वारा अनुच्छेद 113 के अधीन अनुदान किए जाने के पश्चात्‌, यथाशक्य शीघ्र, भारत की संचित निधि में से-- (क) लोकसभा द्वारा इस प्रकार किए गए अनुदानों की, और (ख) भारत की संचित निधि पर भारित, किन्तु संसद‌ के समक्ष पहले रखे गए विवरण में दर्शित रकम से किसी भी दशा में अनधिक व्यय की, पूर्ति के लिए अपेक्षित सभी धनराशियों के विनियोग का उपबंध करने के लिए विधेयक पुर:स्थापित किया जाएगा। (2) इस प्रकार किए गए किसी अनुदान की रकम में परिवर्तन करने या अनुदान के लक्ष्य को बदलने अथवा भारत की संचित निधि पर भारित व्यय की रकम में परिवर्तन करने का प्रभाव रखने वाला कोई संशोधन, ऐसे किसी विधेयक में संसद‌ के किसी सदन में प्रस्थापित नहीं किया जाएगा और पीठासीन व्यक्ति का इस बारे में विनिश्चय अंतिम होगा कि कोई संशोधन इस खंड के अधीन अग्राह्य है या नहीं। (3) अनुच्छेद 115 और अनुच्छेद 16 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, भारत की संचित निधि में से इस अनुच्छेद के उपबंधों के अनुसार पारित विधि द्वारा किए गए विनियोग के अधीन ही कोई धन निकाला जाएगा, अन्यथा नहीं। 115. अनुपूरक, अतिरिक्त या अधिक अनुदान--(1) यदि-- (क) अनुच्छेद 114 के उपबंधों के अनुसार बनाई गई किसी विधि द्वारा किसी विशिष्ट सेवा पर चालू वित्तीय वर्ष के लिए व्यय किए जाने के लिए प्राधिकृत कोई रकम उस वर्ष के प्रयोजनों के लिए अपर्याप्त पाई जाती है या उस वर्ष के वार्षिक वित्तीय विवरण में अनुपयात न की गई किसी नई सेवा पर अनुपूरक या अतिरिक्त व्यय की चालू वित्तीय वर्ष के दौरान आवश्यकता पैदा हो गई है, या (ख) किसी वित्तीय वर्ष के दौरान किसी सेवा पर, उस वर्ष और उस सेवा के लिए अनुदान की गई रकम से अधिक कोई धन व्यय हो गया है, तो राष्ट्रपति, यथास्थिति, संसद‌ के दोनों सदनों के समक्ष उस व्यय की प्राक्कलित रकम को दर्शित करने वाला दूसरा विवरण रखवाएगा या लोकसभा में ऐसे आधिक्य के लिए माँग प्रस्तुत करवाएगा। (2) ऐसे किसी विवरण और व्यय या मांग के संबंध में तथा भारत की संचित निधि में से ऐसे व्यय या ऐसी माँग से संबंधित अनुदान की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में भी, अनुच्छेद 112, अनुच्छेद 113 और अनुच्छेद 114 के उपबंध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण और उसमें वर्णित व्यय या किसी अनुदान की किसी मांग के संबंध में और भारत की संचित निधि में से ऐसे व्यय या अनुदान की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं। 116. लेखानुदान, प्रत्ययानुदान और अपवादानुदान--(1) इस अध्याय के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, लोकसभा को-- (क) किसी वित्तीय वर्ष के भाग के लिए प्राक्कलित व्यय के संबंध में कोई अनुदान, उस अनुदान के लिए मतदान करने के लिए अनुच्छेद 113 में विहित प्रक्रिया के पूरा होने तक और उस व्यय के संबंध में अनुच्छेद 114 के उपबंधों के अनुसार विधि के पारित होने तक, अग्रिम देने की; (ख) जब किसी सेवा की महत्ता या उसके अनिश्चित रूप के कारण मांग ऐसे ब्यौरे के साथ वर्णित नहीं की जा सकती है जो वार्षिक वित्तीय विवरण में सामान्यतया दिया जाता है तब भारत के संपत्ति स्रोतों पर अप्रत्याशित मांग की पूर्ति के लिए अनुदान करने की; (ग) किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का जो अनुदान भाग नहीं है, ऐसा कोई अपवादानुदान करने की, शक्ति होगी और जिन प्रयोजनों के लिए उक्त अनुदान किए गए हैं उनके लिए भारत की संचित निधि में से धन निकालना विधि द्वारा प्राधिकृत करने की संसद‌ को शक्ति होगी। (2) खंड (1) के अधीन किए जाने वाले किसी अनुदान और उस खंड के अधीन बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में अनुच्छेद 113 और अनुच्छेद 114 के उपबंध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण में वर्णित किसी व्यय के बारे में कोई अनुदान करने के संबंध में और भारत की संचित निधि में से ऐसे व्यय की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं। 117. वित्त विधेयकों के बारे में विशेष उपबंध--(1) अनुच्छेद 110 के खंड (1) के उपखंड (क) से उपखंड (च) में विनिर्दिष्ट किसी विषय के लिए उपबंध करने वाला विधेयक या संशोधन राष्ट्रपति की सिफारिश से ही पुरःस्थापित या प्रस्तावित किया जाएगा, अन्यथा नहीं और ऐसा उपबंध करने वाला विधेयक राज्य सभा में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा। परन्तु किसी कर के घटाने या उत्सादन के लिए उपबंध करने वाले किसी संशोधन के प्रस्ताव के लिए इस खंड के अधीन सिफारिश की अपेक्षा नहीं होगी। (2) कोई विधेयक या संशोधन उक्त विषयों में से किसी के लिए उपबंध करने वाला केवल इस कारण नहीं समझा जाएगा कि वह जुर्मानों या अन्य धनीय शास्तियों के अधिरोपण का अथवा अनुज्ञप्तियों के लिए फीसों की या की गई सेवाओं के लिए फीसों की मांग का या उनके संदाय का उपबंध करता है अथवा इस कारण नहीं समझा जाएगा कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन का उपबंध करता है। (3) जिस विधेयक को अधिनियमित और प्रवर्तित किए जाने पर भारत की संचित निधि में से व्यय करना पड़ेगा वह विधेयक संसद‌ के किसी सदन द्वारा तब तक पारित नहीं किया जाएगा जब तक ऐसे विधेयक पर विचार करने के लिए उस सदन से राष्ट्रपति ने सिफारिश नहीं की है। साधारणतया प्रक्रिया 118. प्रक्रिया के नियम--(1) इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद‌ के प्रत्येक सदन अपनी प्रक्रिया और अपने कार्य संचालन के विनियमन के लिए नियम बना सकेगा। (2) जब तक खंड (1) के अधीन नियम नहीं बनाए जाते हैं तब तक इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत डोमिनियन के विधान-मंडल के संबंध में जो प्रक्रिया के नियम और स्थायी आदेश प्रवृत्त थे। वे ऐसे उपांतरणों और अनुकूलनों के अधीन रहते हुए संसद‌ के संबंध में प्रभावी होंगे जिन्हें, यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोकसभा का अध्यक्ष उनमें करे। (3) राष्ट्रपति, राज्य सभा के सभापति और लोकसभा के अध्यक्ष से परामर्श करने के पश्चात्‌, दोनों सदनों की संयुक्त बैठकों से संबंधित और उनमें परस्पर संचार से संबंधित प्रक्रिया के नियम बना सकेगा। (4) दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में लोकसभा का अध्यक्ष या उसकी अनुपस्थिति में ऐसा व्यक्ति पीठासीन होगा जिसका खंड (3) के अधीन बनाई गई प्रक्रिया के नियमों के अनुसार अवधारण किया जाए। 119. संसद‌ में वित्तीय कार्य संबंधी प्रक्रिया का विधि द्वारा विनियमन--संसद‌, वित्तीय कार्य को समय के भीतर पूरा करने के प्रयोजन के लिए किसी वित्तीय विषय से संबंधित या भारत की संचित निधि में से धन का विनियोग करने के लिए किसी विधेयक से संबंधित, संसद‌ के प्रत्येक सदन की प्रक्रिया और कार्य संचालन का विनियमन विधि द्वारा कर सकेगी तथा यदि और जहां तक इस प्रकार बनाई गई किसी विधि का कोई उपबंध अनुच्छेद 118 के खंड (1) के अधीन संसद‌ के किसी सदन द्वारा बनाए गए नियम से या उस अनुच्छेद के खंड (2) के अधीन संसद‌ के संबंध में प्रभावी किसी नियम या स्थायी आदेश से असंगत है तो और वहां तक ऐसा उपबंध अभिभावी होगा। 120. संसद‌ में प्रयोग की जाने वाली भाषा--(1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद‌ में कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा: परन्तु, यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोकसभा का अध्यक्ष अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिन्दी में या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा। (2) जब तक संसद‌ विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ के पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो ''या अंग्रेजी में'' शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया हो। 121. संसद‌ में चर्चा पर निर्बन्धन--उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के, अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए आचरण के विषय में संसद‌ में कोई चर्चा इसमें इसके पश्चात्‌ उपबंधित रीति से उस न्यायाधीश को हटाने की प्रार्थना करने वाले समावेदन को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने के प्रस्ताव पर ही होगी, अन्यथा नहीं। 122. न्यायालयों द्वारा संसद‌ की कार्यवाहियों की जाँच न किया जाना--(1) संसद‌ की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी ‍अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा। (2) संसद‌ का कोई अधिकारी या सदस्य, जिसमें इस संविधान द्वारा या इसके अधीन संसद‌ में प्रक्रिया या कार्य संचालन का विनियमन करने की अथवा व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियाँ निहित हैं, उन शक्तियों के अपने द्वारा प्रयोग के विषय में किसी न्यायालय के अधीन नहीं होगा। भाग 5: संघ: अध्याय 3- राष्ट्रपति की विधायी शक्तियां 123. संसद‌ के विश्रांतिकाल में अध्‍यादेश प्रख्यापित करने की राष्ट्रपति की शक्ति--(1) उस समय को छोड़कर जब संसद‌ के दोनों सदन सत्र में हैं, यदि किसी समय राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जिनके कारण तुरंत कार्रवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है तो वह ऐसे अध्‍यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उसे उन परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों। (2) इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित अध्‍यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो संसद‌ के अधिनियम का होता है, किन्तु प्रत्येक ऐसा अध्‍यादेश -- (क) संसद‌ के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा और संसद‌ के पुनः समवेत होने से छह सप्ताह की समाप्ति पर या यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले दोनों सदन उसके अननुमोदन का संकल्प पारित कर देते हैं तो, इनमें से दूसरे संकल्प के पारित होने पर प्रवर्तन में नहीं रहेगा; और (ख) राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय वापस लिया जा सकेगा। स्पष्टीकरण--जहाँ संसद‌ के सदन, भिन्न-भिन्न तारीखों को पुनः समवेत होने के लिए, आहूत किए जाते हैं वहाँ इस खंड के प्रयोजनों के लिए, छह सप्ताह की अवधि की गणना उन तारीखों में से पश्चात्‌वर्ती तारीख से की जाएगी। (3) यदि और जहाँ तक इस अनुच्छेद के अधीन अध्‍यादेश कोई ऐसा उपबंध करता है जिसे अधिनियमित करने के लिए संसद‌ इस संविधान के अधीन सक्षम नहीं है तो और वहाँ तक वह अध्‍यादेश शून्य होगा। 1 * * * 1 संविधान (अड़तीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 2 द्वारा खंड (4) अंतःस्थापित किया गया और संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 16 द्वारा (20-6-1979 से) उसका लोप किया गया। भाग 5: संघ: अध्याय 4- संघ की न्यायपालिका 124. उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन--(1) भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा जो भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति और, जब तक संसद‌ विधि द्वारा अधिक संख्‍या विहित नहीं करती है तब तक, सात1 से अधिक अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा। (2) उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात्‌, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश तब तक पद धारण करेगा जब तक वह पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है: परन्तु मुख्‍य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति से सदैव परामर्श किया जाएगा: परन्तु यह और कि -- (क) कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; (ख) किसी न्यायाधीश को खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से हटाया जा सकेगा। 2[(2क) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की आयु ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से अवधारित की जाएगी जिसका संसद‌ विधि द्वारा उपबंध करे।] (3) कोई व्यक्ति, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हित होगा जब वह भारत का नागरिक है और-- (क) किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम पाँच वर्ष तक न्यायाधीश रहा है या (ख) किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा है; या (ग) राष्ट्रपति की राय में पारंगत विधिवेत्ता है। स्पष्टीकरण 1--इस खंड में, ''उच्च न्यायालय'' से वह उच्च न्यायालय अभिप्रेत है जो भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में अधिकारिता का प्रयोग करता है, या इस संविधान के प्रारंभ से पहले किसी भी समय प्रयोग करता था। स्पष्टीकरण 2--इस खंड के प्रयोजन के लिए, किसी व्यक्ति के अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात्‌ ऐसा न्यायिक पद धारण किया है जो जिला न्यायाधीश के पद से अवर नहीं है। 1 1986 के अधिनियम, सं.22 की धारा 2 के अनुसार अब यह संख्‍या ''पच्चीस'' है। 2 संविधान (पन्द्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित। (4) उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर ऐसे हटाए जाने के लिए संसद‌ के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्‍या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित समावेदन, राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने आदेश नहीं दे दिया है। (5) संसद‌ खंड (4) के अधीन किसी समावेदन के रखे जाने की तथा न्यायाधीश के कदाचार या असमर्थता के अन्वेषण और साबित करने की प्रक्रिया का विधि द्वारा विनियमन कर सकेगी। (6) उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति, अपना पद ग्रहण करने के पहले राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्ति व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा। (7) कोई व्यक्ति, जिसने उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है, भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकारी के समक्ष ओंभवचन या कार्य नहीं करेगा। 125. न्यायाधीशों के वेतन आदि— 1[(1) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो संसद‌, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।] (2) प्रत्येक न्यायाधीश ऐसे विशेषाधिकारों और भत्तों का तथा अनुपस्थिति छुट्टी और पेंशन के संबंध में ऐसे अधिकारों का, जो संसद‌ द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन समय-समय पर अवधारित किए जाएँ और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किए जाते हैं तब तक ऐसे विशेषाधिकारों, भत्तों और अधिकारों का जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा: परन्तु किसी न्यायाधीश के विशेषाधिकारों और भत्तों में तथा अनुपस्थिति छुट्टी या पेंशन के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात्‌ उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा। 126. कार्यकारी मुख्‍य न्यायमूर्ति की नियुक्ति-- जब भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति का पद रिक्त है या जब मुख्‍य न्यायमूर्ति, अनुपस्थिति के कारण या अन्यथा अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तब न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से ऐसा एक न्यायाधीश, जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। 127. तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति--(1) यदि किसी समय उच्चतम न्यायालय के सत्र को आयोजित करने या चालू रखने के लिए उस न्यायालय के न्यायाधीशों की गणपूर्ति प्राप्त न हो तो भारत का मुख्‍य न्यायमूर्ति राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्‍य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात्‌, किसी उच्च न्यायालय के किसी ऐसे न्यायाधीश से, जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए सम्यक्‌ रूप से अर्हित है और जिसे भारत का मुख्‍य न्यायमूर्ति नामोदिष्ट करे, न्यायालय की बैठकों में उतनी अवधि के लिए, जितनी आवश्यक हो, तदर्थ न्यायाधीश के रूप में उपस्थित रहने के लिए लिखित रूप में अनुरोध कर सकेगा। (2) इस प्रकार नामोदिष्ट न्यायाधीश का कर्तव्य होगा कि वह अपने पद के अन्य कर्तव्यों पर पूर्विकता देकर उस समय और उस अवधि के लिए, जिसके लिए उसकी उपस्थिति अपेक्षित है, उच्चतम न्यायालय की बैठकों में, उपस्थित हो और जब वह इस प्रकार उपस्थित होता है तब उसको उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की सभी, अधिकारिता, शक्तियाँ और विशेषाधिकार होंगे और वह उक्त न्यायाधीश के कर्तव्यों का निर्वहन करेगा। 128. उच्चतम न्यायालय की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की उपस्थिति--इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, भारत का मुख्य न्यायाधीश, किसी भी समय, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति से, जो उच्चतम न्यायालय या फेडरल न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है [या जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है और उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए सम्यक्‌ रूप से अर्हित है,] उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जिससे इस प्रकार अनुरोध किया जाता है, इस प्रकार बैठने और कार्य करने के दौरान, ऐसे भत्तों का हकदार होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे और उसको उस न्यायालय के न्यायाधीश की सभी, अधिकारिता शक्तियाँ और विशेषाधिकार होंगे, किन्तु उसे अन्यथा उस न्यायालय का न्यायाधीश नहीं समझा जाएगा; परन्तु जब तक यथापूर्वोक्त व्यक्ति उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने की सहमति नहीं दे देता है तब तक इस अनुच्छेद की कोई बात उससे ऐसा करने की अपेक्षा करने वाली नहीं समझी जाएगी। 129. उच्चतम न्यायालय का अभिलेख न्यायालय होना--उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियाँ होंगी। 130. उच्चतम न्यायालय का स्थान--उच्चतम न्यायालय दिल्ली में अथवा ऐसे अन्य स्थान या स्थानों में अधिविष्ट होगा जिन्हें भारत का मुख्‍य न्यायमूर्ति, राष्ट्रपति के अनुमोदन से समय-समय पर, नियत करे। 131. उच्चतम न्यायालय की आरंभिक अधिकारिता --इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए,-- (क) भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के बीच, या (ख) एक ओर भारत सरकार और किसी राज्य या राज्यों और दूसरी ओर एक या अधिक अन्य राज्यों के बीच, या (ग) दो या अधिक राज्यों के बीच, किसी विवाद में, यदि और जहाँ तक उस विवाद में (विधि का या तनय का) ऐसा कोई प्रश्न अंतर्वलित है जिस पर किसी विधिक अधिकार का आघ्स्तत्व या विस्तार निर्भर है तो और वहाँ तक अन्य न्यायालयों का अपवर्जन करके उच्चतम न्यायालय को आरंभिक अधिकारिता होगी: 1 [परन्तु उक्त का अधिकारिता विस्तार उस विवाद पर नहीं होगा जो किसी ऐसी संधि, करार, प्रसंविदा, वचनबंध, सनद या वैसी ही अन्य लिखत से उत्पन्न हुआ है जो इस संविधान के प्रारंभ से पहले की गई थी या निष्पादित की गई थी और ऐसे प्रारंभ के पश्चात्‌ प्रवर्तन में है या जो यह उपबंध करती है कि उक्त का विस्तार ऐसे विवाद पर नहीं होगा।] 2131क. [केन्द्रीय विधियों की सांविधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों के बारे में उच्चतम न्यायालय की अनन्य अधिकारिता ।]--संविधान (तैंतालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 4 द्वारा (13-4-1978) से निरसित। 132. कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों से अपीलों में उच्चतम न्यायालय की अपीली अधिकारिता --(1) भारत के राज्यक्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय की सिविल, दांडिक या अन्य कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी 3[यदि वह उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134क के अधीन प्रमाणित कर देता है] कि उस मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान्‌ प्रश्न अंतर्वलित है। 4 * * * (3) जहाँ ऐसा प्रमाणपत्र दे दिया गया है5 वहाँ उस मामले में कोई पक्षकार इस आधार पर उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकेगा कि पूर्वोक्त किसी प्रश्न का विनिश्चय गलत किया गया है। स्पष्टीकरण--इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, ''अंतिम आदेश'' पद के अंतर्गत ऐसे विवाद्यक का विनिश्चय करने वाला आदेश है जो, यदि अपीलार्थी के पक्ष में विनिश्चित किया जाता है तो, उस मामले के अंतिम निपटारे के लिए पर्याप्त होगा। 133. उच्च न्यायालयों से सिविल विषयों से संबंधित अपीलों में उच्चतम न्यायालय की अपीली अधिकारिता –6[(1) भारत के राज्यक्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय की सिविल कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी 7[यदि उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134क के अधीन प्रमाणित कर देता है कि] -- (क) उस मामले में विधि का व्यापक महत्व का कोई सारवान्‌ प्रश्न अंतर्वलित है; और (ख) उच्च न्यायालय की राय में उस प्रश्न का उच्चतम न्यायालय द्वारा विनिश्चय आवश्यक है।] (2) अनुच्छेद 132 में किसी बात के होते हुए भी, उच्चतम न्यायालय में खंड (1) के अधीन अपील करने वाला कोई पक्षकार ऐसी अपील के आधारों में यह आधार भी बता सकेगा कि इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि के किसी सारवान्‌ प्रश्न का विनिश्चय गलत किया गया है। (3) इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में तब तक नहीं होगी जब तक संसद‌ विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे। 134. दांडिक विषयों में उच्चतम न्यायालय की अपीली अधिकारिता --(1) भारत के राज्यक्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय की दांडिक कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय, अंतिम आदेश या दंडादेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी यदि — (क) उस उच्च न्यायालय ने अपील में किसी अभियुक्त व्यक्ति की दोषमुक्ति के आदेश को उलट दिया है और उसको मृत्यु दंडादेश दिया है; या (ख) उस उच्च न्यायालय ने अपने प्राधिकार के अधीनस्थ किसी न्यायालय से किसी मामले को विचारण के लिए अपने पास मँगा लिया है और ऐसे विचारण में ‍अभियुक्त व्यक्ति को सिद्धदोष ठहराया है और उसको मृत्यु दंडादेश दिया है; या (ग) वह उच्च न्यायालय 8[अनुच्छेद 134क के अधीन प्रमाणित कर देता है] कि मामला उच्चतम न्यायालय में अपील किए जाने योग्य है: 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 5 द्वारा परन्तुक के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 23 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित। 3 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 17 द्वारा (1-8-1979 से) ''यदि उच्च न्यायालय प्रमाणित कर दे'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 17 द्वारा (1-8-1979 से) खंड (2) का लोप किया गया। 5 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 17 द्वारा (1-8-1979 से) कुछ शब्दों का लोप किया गया। 6 संविधान (तीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1972 की धारा 2 द्वारा (27-2-1973 से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 7 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 18 द्वारा (1-8-1979 से) ''यदि उच्च न्यायालय प्रमाणित करे'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 8 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 19 द्वारा (1-8-1979 से) ''प्रमाणित करता है'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। (2) संसद‌ विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय को भारत के राज्यक्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय की दांडिक कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय, अंतिम आदेश या दंडादेश की अपील ऐसी शर्तों और परिसीमाओं के अधीन रहते हुए, जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट की जाएँ, ग्रहण करने और सुनने की अतिरिक्त शक्ति दे सकेगी। 1[134क. उच्चतम न्यायालय में अपील के लिए प्रमाणपत्र--प्रत्येक उच्च न्यायालय, जो अनुच्छेद 132 के खंड (1) या अनुच्छेद 133 के खंड (1) या अनुच्छेद 134 के खंड (1) में निर्दिष्ट निर्णय, डिक्री, अंतिम आदेश या दंडादेश पारित करता है या देता है, इस प्रकार पारित किए जाने या दिए जाने के पश्चात्‌ यथाशक्य शीघ्र, इस प्रश्न का अवधारण कि उस मामले के संबंध में, यथास्थिति, अनुच्छेद 132 के खंड (1) या अनुच्छेद 133 के खंड (1) या अनुच्छेद 134 के खंड (1) के उपखंड (ग) में निर्दिष्ट प्रकृति का प्रमाणपत्र दिया जाए या नहीं,-- (क) यदि वह ऐसा करना ठीक समझता है तो स्वप्रेरणा से कर सकेगा; और (ख) यदि ऐसा निर्णय, डिक्री, अंतिम आदेश या दंडादेश पारित किए जाने या दिए जाने के ठीक पश्चात्‌ व्यथित पक्षकार द्वारा या उसकी ओर से मौखिक आवेदन किया जाता है तो करेगा।] 135. विद्यमान विधि के अधीन फेडरल न्यायालय की अधिकारिता और शक्तियों का उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रयोक्तव्य होना--जब तक संसद‌ विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक उच्चतम न्यायालय को भी किसी ऐसे विषय के संबंध में, जिसको अनुच्छेद 133 या अनुच्छेद 134 के उपबंध लागू नहीं होते हैं, अधिकारिता और शक्तियाँ होंगी यदि उस विषय के संबंध में इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले किसी विद्यमान विधि के अधीन अधिकारिता और शक्तियाँ फेडरल न्यायालय द्वारा प्रयोक्तव्य थीं। 136. अपील के लिए उच्चतम न्यायालय की विशेष इजाजत--(1) इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, उच्चतम न्यायालय अपने विवेकानुसार भारत के राज्यक्षेत्र में किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा किसी वाद या मामले में पारित किए गए या दिए गए किसी निर्णय, डिक्री, अवधारण, दंडादेश या आदेश की अपील के लिए विशेष इजाजत दे सकेगा। (2) खंड (1) की कोई बात सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा पारित किए गए या दिए गए किसी निर्णय, अवधारण, दंडादेश या आदेश को लागू नहीं होगी। 137. निर्णयों या आदेशों का उच्चतम न्यायालयों द्वारा पुनर्विलोकन--संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि के या अनुच्छेद 145 के अधीन बनाए गए नियमों के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय को अपने द्वारा सुनाए गए निर्णय या दिए गए आदेश का पुनर्विलोकन करने की शक्ति होगी। 138. उच्चतम न्यायालय अधिकारिता की वृद्धि--(1) उच्चतम न्यायालय को संघ सूची के विषयों में से किसी के संबंध में ऐसी अधिकारिता अतिरिक्त और शक्तियाँ होंगी जो संसद‌ विधि द्वारा प्रदान करे। (2) यदि संसद‌ विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसी अधिकारिता और शक्तियों के प्रयोग का उपबंध करती है तो उच्चतम न्यायालय को किसी विषय के संबंध में ऐसी अतिरिक्त अधिकारिता और शक्तियाँ होंगी जो भारत सरकार और किसी राज्य की सरकार विशेष करार द्वारा प्रदान करे। 139. कुछ रिट निकालने की शक्तियों का उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त किया जाना--संसद‌ विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 32 के खंड (2) में वर्णित प्रयोजनों से भिन्न किन्हीं प्रयोजनों के लिए ऐसे निदेश, आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, या उनमें से कोई निकालने की शक्ति प्रदान कर सकेगी। 2[139क. कुछ मामलों का अंतरण—3[(1) यदि ऐसे मामले, जिनमें विधि के समान या सारतः समान प्रश्न अंतर्वलित हैं, उच्चतम न्यायालय के और एक या अधिक उच्च न्यायालयों के अथवा दो या अधिक उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित हैं और उच्चतम न्यायालय का स्वप्रेरणा से अथवा भारत के महान्यायवादी द्वारा या ऐसे किसी मामले के किसी पक्षकार द्वारा किए गए आवेदन पर यह समाधान हो जाता है कि ऐसे प्रश्न व्यापक महत्व के सारवान्‌ प्रश्न हैं तो, उच्चतम न्यायालय उस उच्च न्यायालय या उन उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित मामले या मामलों को अपने पास मंगा सकेगा और उन सभी मामलों को स्वंय निपटा सकेगा: परन्तु उच्चतम न्यायालय इस प्रकार मंगाए गए मामले को उक्त विधि के प्रश्नों का अवधारण करने के पश्चात्‌ ऐसे प्रश्नों पर अपने निर्णय की प्रतिलिपि सहित उस उच्च न्यायालय को, जिससे मामला मँगा लिया गया है, लौटा सकेगा और वह उच्च न्यायालय उसके प्राप्त होने पर उस मामले को ऐसे निर्णय के अनुरूप निपटाने के लिए आगे कार्यवाही करेगा।] 1 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 20 द्वारा (1-8-1979 से) अंतःस्थापित। 2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 24 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित। 3 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 21 द्वारा (1-8-1979 से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित। (2) यदि उच्चतम न्यायालय न्याय के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसा करना समीचीन समझता है तो वह किसी उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित किसी मामले, अपील या अन्य कार्यवाही का अंतरण किसी अन्य उच्च न्यायालय को कर सकेगा।] 140. उच्चतम न्यायालय की आनुषंगिक शक्तियाँ--संसद‌, विधि द्वारा, उच्चतम न्यायालय को ऐसी अनुपूरक शक्तियाँ प्रदान करने के लिए उपबंध कर सकेगी जो इस संविधान के उपबंधों में से किसी से असंगत न हों और जो उस न्यायालय को इस संविधान द्वारा या इसके अधीन प्रदत्त अधिकारिता का अधिक प्रभावी रूप से प्रयोग करने के योग्य बनाने के लिए आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों। 141. उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि का सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होना--उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होगी। 142. उच्चतम न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन और प्रकटीकरण आदि के बारे में आदेश – -(1) उच्चतम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जो संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाए, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश1 द्वारा विहित करे, प्रवर्तनीय होगा। (2) संसद‌ द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय को भारत के संपूर्ण राज्यक्षेत्र के बारे में किसी व्यक्ति को हाजिर कराने के, किन्हीं दस्तावेजों के प्रकटीकरण या पेश कराने के अथवा अपने किसी अवमान का अन्वेषण करने या दंड देने के प्रयोजन के लिए कोई आदेश करने की समस्त और प्रत्येक शक्ति होगी। 143. उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने की राष्ट्रपति की शक्ति -- (1) यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तनय का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की संभावना है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे व्यापक महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है, तो वह उस प्रश्न को विचार करने के लिए उस न्यायालय को निर्देशित कर सकेगा और वह न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात्‌ जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित कर सकेगा। (2) राष्ट्रपति अनुच्छेद 1312 के परन्तुक में किसी बात के होते हुए भी, इस प्रकार के विवाद को, जो [उक्त परन्तुक]3 में वर्णित है, राय देने के लिए उच्चतम न्यायालय को निर्देशित कर सकेगा और उच्चतम न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात्‌ जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित करेगा। 144. सिविल और न्यायिक प्राधिकारियों द्वारा उच्चतम न्यायालय की सहायता में कार्य किया जाना- -भारत के राज्यक्षेत्र के सभी सिविल और न्यायिक प्राधिकारी उच्चतम न्यायालय की सहायता में कार्य करेंगे। 4144क. [विधियों की सांविधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों के निपटारे के बारे में विशेष उपबंध।] संविधान (तैंतालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 5 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित। 145. न्यायालय के नियम आदि--(1) संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय समय-समय पर, राष्ट्रपति के अनुमोदन से न्यायालय की पद्धति और प्रक्रिया के, साधारणतया, विनियमन के लिए नियम बना सकेगा जिसके अंतर्गत निम्नलिखित भी हैं, अर्थात्‌: -- (क) उस न्यायालय में विधि-व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों के बारे में नियम; (ख) अपीलें सुनने के लिए प्रक्रिया के बारे में और अपीलों संबंधी अन्य विषयों के बारे में, जिनके अंतर्गत वह समय भी है जिसके भीतर अपीलें उस न्यायालय में ग्रहण की जानी हैं, नियम; (ग) भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी का प्रवर्तन कराने के लिए उस न्यायालय में कार्यवाहियों के बारे में नियम; 5 (गग) 6[अनुच्छेद 139क] के अधीन उस न्यायालय में कार्यवाहियों के बारे में नियम;] 1 उच्चतम न्यायालय (डिक्री और आदेश) प्रवर्तन आदेश, 1954 (सं.आ.47) देखिए। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''के खंड (त्)'' शब्दों, कोष्ठकों और अंक का लोप किया गया। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ''उक्त खंड'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 25 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित। 5 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन)अधिनियम, 1976 की धारा 26 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित। 6 संविधान (तैंतालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 6 द्वारा (13-4-1978 से) ''अनुच्छेद 131क और 139क'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। (घ) अनुच्छेद 134 के खंड (1) के उपखंड (ग) के अधीन अपीलों को ग्रहण किए जाने के बारे में नियम; (ङ) उस न्यायालय द्वारा सुनाए गए किसी निर्णय या किए गए आदेश का जिन शर्तों के अधीन रहते हुए पुनर्विलोकन किया जा सकेगा उनके बारे में और ऐसे पुनर्विलोकन के लिए प्रक्रिया के बारे में, जिसके अतंर्गत वह समय भी है जिसके भीतर ऐसे पुनर्विलोकन के लिए आवेदन उस न्यायालय में ग्रहण किए जाने हैं, नियम; (च) उस न्यायालय में किन्हीं कार्यवाहियों के और उनके आनुषंगिक खर्चे के बारे में, तथा उसमें कार्यवाहियों के संबंध में प्रभारित की जाने वाली फीसों के बारे में नियम; (छ) जमानत मंजूर करने के बारे में नियम; (ज) कार्यवाहियों को रोकने के बारे में नियम; (झ) जिस अपील के बारे में उस न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि वह तुझछ या तंग करने वाली है अथवा विलंब करने के प्रयोजन से की गई है, उसके संक्षिप्त अवधारण के लिए उपबंध करने वाले नियम; (ञ) अनुच्छेद 317 के खंड (1) में निर्दिष्ट जाँचों के लिए प्रक्रिया के बारे में नियम। (2) खंड (3) के उपबंधों] के अधीन रहते हुए, इस अनुच्छेद के अधीन बनाए गए नियम, उन न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्‍या नियत कर सकेंगे जो किसी प्रयोजन के लिए बैठेंगे तथा एकल न्यायाधीशों और खंड न्यायालयों की शक्ति के लिए उपबंध कर सकेंगे। (3) जिस मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान्‌ प्रश्न अतंर्वलित है उसका विनिश्चय करने के प्रयोजन के लिए या इस संविधान के अनुच्छेद 143 के अधीन निर्देश की सुनवाई करने के प्रयोजन के लिए बैठने वाले न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्‍या] पाँच होगी: परन्तु जहाँ अनुच्छेद 132 से भिन्न इस अध्याय के उपबंधों के अधीन अपील की सुनवाई करने वाला न्यायालय पाँच से कम न्यायाधीशों से मिलकर बना है और अपील की सुनवाई के दौरान उस न्यायालय का समाधान हो जाता है कि अपील में संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का ऐसा सारवान्‌ प्रश्न अंतर्वलित है जिसका अवधारण अपील के निपटारे के लिए आवश्यक है वहाँ वह न्यायालय ऐसे प्रश्न को उस न्यायालय को, जो ऐसे प्रश्न को अंतर्वलित करने वाले किसी मामले के विनिश्चय के लिए इस खंड की अपेक्षानुसार गठित किया जाता है, उसकी राय के लिए निर्देशित करेगा और ऐसी राय की प्राप्ति पर उस अपील को उस राय के अनुरूप निपटाएगा। (4) उच्चतम न्यायालय प्रत्येक निर्णय खुले न्यायालय में ही सुनाएगा, अन्यथा नहीं और अनुच्छेद के अधीन प्रत्येक प्रतिवेदन खुले न्यायालय में सुनाई गई राय के अनुसार ही दिया जाएगा, अन्यथा नहीं। (5) उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रत्येक निर्णय और ऐसी प्रत्येक राय, मामले की सुनवाई में उपस्थित न्यायाधीशों की बहुसंख्‍या की सहमति से ही दी जाएगी, अन्यथा नहीं, किन्तु इस खंड की कोई बात किसी ऐसे न्यायाधीश को, जो सहमत नहीं है, अपना विसम्मत निर्णय या राय देने से निवारित नहीं करेगी। 146. उच्चतम न्यायालय के अधिकारी और सेवक तथा व्यय--(1) उच्चतम न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्तियाँ भारत का मुख्‍य न्यायमूर्ति करेगा या उस न्यायालय का ऐसा अन्य न्यायाधीश या अधिकारी करेगा जिसे वह निर्दिष्ट करे: परन्तु राष्ट्रपति नियम द्वारा यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसी किन्हीं दशाओं में, जो नियम में विनिर्दिष्ट की जाएँ, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो पहले से ही न्यायालय से संलषन नहीं है, न्यायालय से संबंधित किसी पद पर संघ लोक सेवा आयोग से परामर्श करके ही नियुक्त किया जाएगा, अन्यथा नहीं। (2) संसद‌ द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की सेवा की शर्तें ऐसी होंगी जो भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति या उस न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीश या अधिकारी द्वारा, जिसे भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति ने इस प्रयोजन के लिए नियम बनाने के लिए प्राधिकृत किया है, बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाएँ: परन्तु इस खंड के अधीन बनाए गए नियमों के लिए, जहाँ तक वे वेतनों, भत्तों, छुट्टी या पेंशनों से संबंधित हैं, राष्ट्रपति के अनुमोदन की अपेक्षा होगी। (3) उच्चतम न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, जिनके अतंर्गत उस न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों को या उनके संबंध में संदेय सभी वेतन, भत्ते और पेंशन हैं, भारत की संचित निधि पर भारित होंगे और उस न्यायालय द्वारा ली गई फीसें और अन्य धनराशियाँ उस निधि का भाग होंगी। 147. निर्वचन--इस अध्याय में और भाग 6 के अध्याय 5 में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि के किसी सारवान्‌ प्रश्न के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उनके अतंर्गत भारत शासन अधिनियम, 1935 के (जिसके अंतर्गत उस अधिनियम की संशोधक या अनुपूरक कोई अधिनियमिति है) अथवा किसी सपरिषद आदेश या उसके अधीन बनाए गए किसी आदेश के अथवा भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के या उसके अधीन बनाए गए किसी आदेश के निर्वचन के बारे में विधि के किसी सारवान्‌ प्रश्न के प्रति निर्देश हैं। भाग 5: संघ: अध्याय 5- भारत का नियंत्रक- महालेखापरीक्षक 148. भारत का नियंत्रक-महालेखापरीक्षक--(1) भारत का एक नियंत्रक-महालेखापरीक्षक होगा जिसको राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा और उसे उसके पद से केवल उसी रीति से और उन्हीं आधारों पर हटाया जाएगा जिस रीति से और जिन आधारों पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाता है। (2) प्रत्येक व्यक्ति, जो भारत का नियंत्रक-महालेखापरीक्षक नियुक्त किया जाता है अपना पद ग्रहण करने से पहले, राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा। (3) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक का वेतन और सेवा की अन्य शर्तें ऐसी होंगी जो संसद‌, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक वे इस प्रकार अवधारित नहीं की जाती हैं तब तक ऐसी होंगी जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं: परन्तु नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के वेतन में और अनुपस्थिति छुट्टी, पेंशन या निवृत्ति की आयु के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात्‌ उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा। (4) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक, अपने पद पर न रह जाने के पश्चात्‌‌, भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी और पद का पात्र नहीं होगा। (5) इस संविधान के और संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, भारतीय लेखापरीक्षा और लेखा विभाग में सेवा करने वाले व्यक्तियों की सेवा की शर्तें और नियंत्रक-महालेखापरीक्षक की प्रशासनिक शक्तियाँ ऐसी होंगी जो नियंत्रक-महालेखापरीक्षक से परामर्श करने के पश्चात्‌ राष्ट्रपति द्वारा बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाए। (6) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के कार्यालय के प्रशासनिक व्यय, जिनके अंतर्गत उस कार्यालय में सेवा करने वाले व्यक्तियों को या उनके संबंध में संदेय सभी वेतन, भत्ते और पेंशन हैं, भारत की संचित निधि पर भारित होंगे। 149. नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के कर्तव्य और शक्तियाँ--नियंत्रक-महालेखापरीक्षक संघ के और राज्यों के तथा किसी अन्य प्राधिकारी या निकाय के लेखाओं के संबंध में ऐसे कर्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जिन्हें संसद‌ द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किया जाए और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, संघ के और राज्यों के लेखाओं के संबंध में ऐसे कर्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जो इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले क्रमशः भारत डोमिनियन के और प्रांतों के लेखाओं के संबंध में भारत के महालेखापरीक्षक को प्रदत्त थीं या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य थीं। 1[150. संघ के और राज्यों के लेखाओं का प्रारूप--संघ के और राज्यों के लेखाओं को ऐसे प्रारूप में रखा जाएगा जो राष्ट्रपति, भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक 2[की सलाह पर] विहित करे।] 151. संपरीक्षा प्रतिवेदन-- (1) भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के संघ के लेखाओं संबंधी प्रतिवेदनों को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, जो उनको संसद‌ के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा। (2) भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के किसी राज्य के लेखाओं संबंधी प्रतिवेदनों को उस राज्य के राज्यपाल3 के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, जो उनको राज्य के विधान-मंडल के समक्ष रखवाएगा। 1 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 27 द्वारा (1-4-1977 से) अनुच्छेद 150 के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 22 द्वारा (20-6-1979 से) ''से परामर्श के पश्चात्‌‌'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा '' या राजप्रमुख'' शब्दों का लोप किया गया। भाग 6: 1*** राज्य: अध्याय 1- साधारण 152. परिभाषा-- इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, '' राज्य'' पद 2[के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य नहीं है।] 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा '' पहली अनुसूची के भाग क में के'' शब्दों का लोप किया गया। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा '' का अर्थ प्रथम अनुसूची के भाग क में उल्लिखित राज्य है'' के स्थान पर प्रतिस्थापित भाग 6: राज्य: अध्याय 2- कार्यपालिका राज्यपाल 153. राज्यों के राज्यपाल--प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा : 1[परन्तु इस अनुच्छेद की कोई बात एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के लिए राज्यपाल नियुक्त किए जाने से निवारित नहीं करेगी।] 154. राज्य की कार्यपालिका शक्ति--(1) राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा। (2) इस अनुच्छेद की कोई बात-- (क) किसी विद्यमान विधि द्वारा किसी अन्य प्राधिकारी को प्रदान किए गए कृत्य राज्यपाल को अंतरित करने वाली नहीं समझी जाएगी; या (ख) राज्यपाल के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी को विधि द्वारा कृत्य प्रदान करने से संसद‌ या राज्य के विधान-मंडल को निवारित नहीं करेगी। 155. राज्यपाल की नियुक्ति--राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा। 156. राज्यपाल की पदावधि--(1) राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा। (2) राज्यपाल, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा। (3) इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्यपाल अपने पदग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा: परन्तु राज्यपाल, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी, तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। 157. राज्यपाल नियुक्त होने के लिए अर्हताएँ--कोई व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त होने का पात्र तभी होगा जब वह भारत का नागरिक है और पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है। 158. राज्यपाल के पद के लिए शर्तें--(1) राज्यपाल संसद‌ के किसी सदन का या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या ऐसे किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य राज्यपाल नियुक्त हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान राज्यपाल के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है। (2) राज्यपाल अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा। (3) राज्यपाल, बिना किराया दिए, अपने शासकीय निवासों के उपयोग का हकदार होगा अब ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का भी, जो संसद, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा। 143 2(3क) एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जाता है वहां उस राज्यपाल को संदेय उपलब्धियाँ और भत्ते उन राज्यों के बीच ऐसे अनुपात में आबंटित किए जाएँगे जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे। (4) राज्यपाल की उपलब्धियाँ और भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किए जाएँगे। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 6 द्वारा जोड़ा गया। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 7 द्वारा अंतःस्थापित। 159. राज्यपाल द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान--प्रत्येक राज्यपाल और प्रत्येक व्यक्ति जो राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, अपना पद ग्रहण करने से पहले उस राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति या उसकी अनुपस्थिति में उस न्यायालय के उपलब्ध ज्येष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्‌ :-- ईश्वर की शपथ लेता हूँ '' मैं, अमुक,---------------------------------------कि मैं श्रद्धापूर्वक.............................................. सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ (राज्य का नाम) के राज्यपाल के पद का कार्यपालन (अथवा राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन) करूंगा तथा अपनी पूरी योषयता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं.............. (राज्य का नाम) की जनता की सेवा और कल्याण में विरत रहूँगा। '' । 160. कुछ आकस्मिकताओं में राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन--राष्ट्रपति ऐसी किसी आकस्मिकता में, जो इस अध्याय में उपबंधित नहीं है, राज्य के राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन के लिए ऐसा उपबंध कर सकेगा जो वह ठीक समझता है। 161. क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राज्यपाल की शक्ति--किसी राज्य के राज्यपाल को उस विषय संबंधी, जिस विषय पर उस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, किसी विधि के विरुद्ध किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश में निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी। 162. राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार--इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार उन विषयों पर होगा जिनके संबंध में उस राज्य के विधान-मंडल को विधि बनाने की शक्ति है: परंतु जिस विषय के संबंध में राज्य के विधान-मंडल और संसद को विधि बनाने की शक्ति है उसमें राज्य की कर्यपालिका शक्ति इस संविधान द्वारा, या संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा, संघ या उसके प्राधिकारियों को अभिव्यक्त रूप से प्रदत्त कार्यपालिका शक्ति के अधीन और उससे परिसीमित होगी। मंत्रि-परिषद 163. राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि-परिषद --(1) जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा। (2) यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं। (3) इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जाँच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को काई सलाह दी, और यदि दी तो क्या दी। 164. मंत्रियों के बारे में अन्य उपबंध--(1) मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल, मुख्यमंत्री की सलाह पर करेगा तथा मंत्री, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत अपने पद धारण करेंगे: परंतु बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा राज्यों में जनजातियों के कल्याण का भारसाधक एक मंत्री होगा जो साथ ही अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के कल्याण का या किसी अन्य कार्य का भी भारसाधक हो सकेगा। (1क) किसी राज्य की मंत्रि-परिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या उस राज्य की विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी: 1 संविधान (इक्यानवेवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 3 द्वारा अंतःस्थापित। परंतु किसी राज्य में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या बारह से कम नहीं होगी : परंतु यह और कि जहाँ संविधान (इक्यानवेवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 के प्रारंभ पर किसी राज्य की मंत्रि-परिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या, यथास्थिति, उक्त पंद्रह प्रतिशत या पहले परंतुक में विनिर्दिष्ट संख्या से अधिक है वहाँ उस राज्य में मंत्रियों की कुल संख्या ऐसी तारीख से, जो राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा नियत करे छह मास के भीतर इस खंड के उपबंधों के अनुरूप लाई जाएगी। (1ख) किसी राजनीतिक दल का किसी राज्य की विधानसभा का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का जिसमें विधान परिषद है, कोई सदस्य जो दसवीं अनुसूची के पैरा 2 के अधीन उस सदन का सदस्य होने के लिए निरर्हित है, अपनी निरर्हता की तारीख से प्रारंभ होने वाली और उस तारीख तक जिसको ऐसे सदस्य के रूप में उसकी पदावधि समाप्त होगी या जहाँ वह, ऐसी अवधि की समाप्ति के पूर्व, यथास्थिति, किसी राज्य की विधानसभा के लिए या विधान परिषद वाले किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन के लिए कोई निर्वाचन लड़ता है उस तारीख तक जिसको वह निर्वाचित घोषित किया जाता है, इनमें से जो भी पूर्वतर हो, की अवधि के दौरान, खंड (1) के अधीन मंत्री के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए भी निरर्हित होगा। (2) मंत्रि-परिषद राज्य की विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी। (3) किसी मंत्री द्वारा अपना पद ग्रहण करने से पहले, राज्यपाल तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूपों के अनुसार उसको पद की और गोपनीयता की शपथ दिलाएगा। (4) कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास की किसी अवधि तक राज्य के विधान-मंडल का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा। (5) मंत्रियों के वेतन और भत्ते ऐसे होंगे जो उस राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा, समय-समय पर अवधारित करे और जब तक उस राज्य का विधान-मंडल इस प्रकार अवधारित नहीं करता है तब तक ऐसे होंगे जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। राज्य का महाधिवक्ता 165. राज्य का महाधिवक्ता--(1) प्रत्येक राज्य का राज्यपाल, उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्हित किसी व्यक्ति को राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त करेगा। (2) महाधिवक्ता का यह कर्तव्य होगा कि वह उस राज्य की सरकार को विधि संबंधी ऐसे विषयों पर सलाह दे और विधिक स्वरूप के ऐसे अन्य कर्तव्यों का पालन करे जो राज्यपाल उसको समय-समय पर निर्देशित करे या सौंपे और उन कृत्यों का निर्वहन करे जो उसको इस संविधान अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा या उसके अधीन प्रदान किए गए हों। (3) महाधिवक्ता, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा और ऐसा पारिश्रमिक प्राप्त करेगा जो राज्यपाल अवधारित करे। सरकारी कार्य का संचालन 166. राज्य की सरकार के कार्य का संचालन--(1) किसी राज्य की सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्रवाई राज्यपाल के नाम से की हुई कही जाएगी। (2) राज्यपाल के नाम से किए गए और निष्पादित आदेशों और अन्य लिखतों को ऐसी रीति से अधिप्रमाणित किया जाएगा जो राज्यपाल द्वारा बनाए जाने वाले नियमों में विनिर्दिष्ट की जाए और इस प्रकार अधिप्रमाणित आदेश या लिखत की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि वह राज्यपाल द्वारा किया गया या निष्पादित आदेश या लिखत नहीं है। (3) राज्यपाल, राज्य की सरकार का कार्य अधिक सुविधापूर्वक किए जाने के लिए और जहाँ तक वह कार्य ऐसा कार्य नहीं है जिसके विषय में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे वहाँ तक मंत्रियों में उक्त कार्य के आबंटन के लिए नियम बनाएगा। 7-1-2004, देखिए का.आ. 21(अ), दिनांक 7-1-2004। 1* * * * * 167. राज्यपाल को जानकारी देने आदि के संबंध में मुख्यमंत्री के कर्तव्य--प्रत्येक राज्य के मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य होगा कि वह-- (क) राज्य के कार्यों के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रि-परिषद के सभी विनिश्चय राज्यपाल को संसूचित करे; (ख) राज्य के कार्यों के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी जो जानकारी राज्यपाल माँगे, वह दे; और (ग) किसी विषय को जिस पर किसी मंत्री ने विनिश्चय कर दिया है किंतु मंत्रि-परिषद ने विचार नहीं किया है, राज्यपाल द्वारा अपेक्षा किए जाने पर परिषद के समक्ष विचार के लिए रखे। 1 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 28 द्वारा (3-1-1977 से) खंड 4 अंतःस्थापित किया गया था और उसका संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 23 द्वारा (20-6-1979 से) लोप किया गया। भाग 6: राज्य: अध्याय 3 राज्य का विधान-मंडल साधारण 168. राज्यों के विधान-मंडलों का गठन--(1) प्रत्येक राज्य के लिए एक विधान-मंडल होगा जो राज्यपाल और -- (क) 1*** बिहार, 2*** 3-4*** : 5[महाराष्ट्र], 6[कर्नाटक] 7***8[और उत्तर प्रदेश] राज्यों में दो सदनों से; (ख) अन्य राज्यों में एक सदन से, मिलकर बनेगा। (2) किसी राज्य के विधान-मंडल के दो सदन हैं वहां एक का नाम विधान परिषद और दूसरे का नाम विधानसभा होगा और केवल एक सदन है वहां उसका नाम विधानसभा होगा। 169. राज्यों में विधान परिषदों का उत्सादन या सृजन--(1) अनुच्छेद 168 में किसी बात के होते हुए भी, संसद विधि द्वारा किसी विधान परिषद वाले राज्य में विधान परिषद के उत्सादन के लिए या ऐसे राज्य में, जिसमें विधान परिषद नहीं है, विधान परिषद के सृजन के लिए उपबंध कर सकेगी, यदि उस राज्य की विधानसभा ने इस आशय का संकल्प विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया है। (2) खंड (1) में विनिर्दिष्ट किसी विधि में इस संविधान के संशोधन के लिए ऐसे उपबंध अंतर्विष्ट होंगे जो उस विधि के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए आवश्यक हों तथा ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध भी अंतर्विष्ट हो सकेंगे जिन्हें संसद आवश्यक समझे। (3) पूर्वोक्त प्रकार की कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए इस संविधान का संशोधन नहीं समझी जाएगी। 1 '' आंध्र प्रदेश'' शब्दों का आंध्र प्रदेश विधान परिषद (उत्सादन) अधिनियम, 1985 (1985 का 34) की धारा 4 द्वारा (1-6-1985 से) लोप किया गया। 2 मुंबई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 (1960 का 11) की धारा 20 द्वारा (1-5-1960 से) '' मुंबई'' शब्द का लोप किया गया। 3 इस उपखंड में '' मध्य प्रदेश'' शब्दों के अंतःस्थापन के लिए संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 8(2) के अधीन कोई तारीख नियत नहीं की गई है। 4 तमिलनाडु विधान परिषद (उत्सादन) अधिनियम, 1986 (1986 का 40) की धारा 4 द्वारा (1-11-1986 से) '' तमिलनाडु'' शब्द का लोप किया गया। 5 मुबंई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 (1960 का 11) की धारा 20 द्वारा (1-5-1960 से ) अंतःस्थापित। 6 मैसूर राज्य (नाम-परिवर्तन) अधिनियम, 1973 (1973 का 31) की धारा 4 द्वारा (1-11-1973 से) '' मैसूर'' के स्थान पर प्रतिस्थापित जिसे संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 8(1) द्वारा अंतःस्थापित किया गया था। 7 पंजाब विधान परिषद (उत्सादन) अधिनियम, 1969 (1969 का 46) की धारा 4 द्वारा (7-1-1970 से) '' पंजाब'' शब्द का लोप किया गया। 8 पश्चिमी बंगाल विधान परिषद (उत्सादन) अधिनियम, 1969 (1969 का 20) की धारा 4 द्वारा (1-8-1969 से) '' उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 170. विधानसभाओं की संरचना--(1) अनुच्छेद 333 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, प्रत्येक राज्य की विधानसभा उस राज्य में प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुए पाँच सौ से अनधिक और साठ से अन्यून सदस्यों से मिलकर बनेगी। (2) खंड (1) के प्रयोजनों के लिए, प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में ऐसी रीति से विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र की जनसंख्या का उसको आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथासापय एक ही हो। स्पष्टीकरण--इस खंड में '' जनसंख्या'' पद से ऐसी अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना में अभिनिश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत है जिसके सुसंगत आँकड़े प्रकाशित हो गए हैं : परंतु इस स्पष्टीकरण में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति जिसके सुसंगत आँकड़े प्रकाशित हो गए हैं, निर्देश का, जब तक सन्‌ 2026 के पश्चात्‌ की गई पहली जनगणना के सुसंगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह 2001 की जनगणना के प्रतिनिर्देश है। (3) प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रत्येक राज्य की विधानसभा में स्थानों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुनःसमायोजन किया जाएगा जो संसद विधि द्वारा अवधारित करे : परंतु ऐसे पुन: समायोजन से विधानसभा में प्रतिनिधित्व पद पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक उस समय विद्यमान विधानसभा का विघटन नहीं हो जाता है : परंतु यह और कि ऐसा पुन: समायोजन उस तारीख से प्रभावी होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे और ऐसे पुन: समायोजन के प्रभावी होने तक विधानसभा के लिए कोई निर्वाचन उन प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों के आधार पर हो सकेगा जो ऐसे पुन: समायोजन के पहले विद्यमान हैं : परंतु यह और भी कि जब तक सन्‌ : 2026 के पश्चात्‌ की गई पहली जनगणना के सुसंगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं तब तक : इस खंड के अधीन,-- (i) प्रत्येक राज्य की विधानसभा में 1971 की जनगणना के आधार पर पुन: समायोजित स्थानों की कुल संख्या का; और (ii) ऐसे राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजन का, जो 2001 की जनगणना के आधार पर पुन: समायोजित किए जाएँ, पुन: समायोजन आवश्यक नहीं होगा। 171. विधान परिषदों की संरचना--(1) विधान परिषद वाले राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या उस राज्य की विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के एक-तिहाई से अधिक नहीं होगी: परंतु किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या किसी भी दशा में चालीस से कम नहीं होगी। (2) जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक किसी राज्य की विधान परिषद की संरचना खंड (3) में उपबंधित रीति से होगी। (3) किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या का-- 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 9 द्वारा अनुच्छेद 170 के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 29 द्वारा (3-1-1977 से) स्पष्टीकरण के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (चौरासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 5 द्वारा प्रतिस्थापित। 4 संविधान (सतासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 4 द्वारा प्रतिस्थापित। 5 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 29 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित। 6 संविधान (चौरासीवाँ संशोधन) अधिनियम 2001 की धारा 5 द्वारा क्रमशः अंकों और शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। 7 संविधान (सतासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 4 द्वारा प्रतिस्थापित। 8 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 10 द्वारा '' एक चौथाई'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। (क) यथाशक्य निकटतम एक-तिहाई भाग उस राज्य की नगरपालिकाओं, जिला बोर्र्डों और अन्य ऐसे स्थानीय प्राधिकारियों के, जो संसद विधि द्वारा विनिर्दिष्ट करे, सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा; (ख) यथाशक्य निकटतम बारहवाँ भाग उस राज्य में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा, जो भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विश्वविद्यालय के कम से कम तीन वर्ष से स्नातक हैं या जिनके पास कम से कम तीन वर्ष से ऐसी अर्हताएँ हैं जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि या उसके अधीन ऐसे किसी विश्वविद्यालय के स्नातक की अर्हताओं के समतुल्य विहित की गई हों; (ग) यथाशक्य निकटतम बारहवाँ भाग ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा जो राज्य के भीतर माध्यमिक पाठशालाओं से ‍िनम्न स्तर की ऐसी शिक्षा संस्थाओं में, जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएँ, पढ़ाने के काम में कम से कम तीन वर्ष से लगे हुए हैं; (घ) यथाशक्य निकटतम एक-तिहाई भाग राज्य की विधानसभा के सदस्यों द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से निर्वाचित होगा जो विधानसभा के सदस्य नहीं हैं; (ङ) शेष सदस्य राज्यपाल द्वारा खंड (5) के उपबंधों के अनुसार नामनिर्देशित किए जाएँगे। (4) खंड (3) के उपखंड (क), उपखंड (ख) और उपखंड (ग) के अधीन निर्वाचित होने वाले सदस्य ऐसे प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में चुने जाएँगे, जो संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किए जाएं तथा उक्त उपखंडों के और उक्त खंड के उपखंड (घ) के अधीन निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होंगे। (5) राज्यपाल द्वारा खंड (3) के उपखंड (ङ) के अधीन नामनिर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात्‌ :-- साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और समाज सेवा। 172. राज्यों के विधान-मंडलों की अवधि--(1) प्रत्येक राज्य की प्रत्येक विधानसभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से पाँच वर्ष तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और पाँच वर्ष की उक्त अवधि की समाप्ति का परिणाम विधानसभा का विघटन होगा: परंतु उक्त अवधि को, जब आपात्‌ की उद्‍घोषणा प्रवर्तन में है, तब संसद विधि द्वारा, ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और उद्‍घोषणा के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात्‌ किसी भी दशा में उसका विस्तार छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा। (2) राज्य की विधान परिषद का विघटन नहीं होगा, किंतु उसके सदस्यों में से यथासंभव निकटतम एक-तिहाई सदस्य संसद द्वारा विधि द्वारा इस निमित्त बनाए गए उपबंधों के अनुसार, प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर यथाशक्य शीघ्र निवृत्त हो जाएँगे। 173. राज्य के विधान-मंडल की सदस्यता के लिए अर्हता--कोई व्यक्ति किसी राज्य में विधान-मंडल के किसी स्थान को भरने के लिए चुने जाने के लिए अर्हत तभी होगा जब — (क) वह भारत का नागरिक है और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेता है या प्रतिज्ञान करता है और उस पर अपने हस्ताक्षर करता है; (ख) वह विधानसभा के स्थान के लिए कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का और विधान परिषद के स्थान के लिए कम से कम तीस वर्ष की आयु का है; और 1 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 24 द्वारा (6-9-1979 से) '' छह वर्ष'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 30 द्वारा (3-1-1977 से) मूल शब्दों '' पाँच वर्ष'' के स्थान पर '' छह वर्ष'' प्रतिस्थापित किए गए थे। 2 संविधान (सोलहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा खंड (क ) के स्थान पर प्रतिस्थापित। (ग) उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएँ हैं जो इस निमित्त संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएं। 174. राज्य के विधान-मंडल के सत्र, सत्रावसान और विघटन--(1) राज्यपाल, समय-समय पर, राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए आहूत करेगा, किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तारीख के बीच छह मास का अंतर नहीं होगा। (2) राज्यपाल, समय-समय पर,--- (क) सदन का या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा; (ख) विधानसभा का विघटन कर सकेगा। 175. सदन या सदनों में अभिभाषणका और उनको संदेश भेजने का राज्यपाल का अधिकार --(1) राज्यपाल, विधानसभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में उस राज्य के विधान-मंडल के किसी एक सदन में या एक साथ समवेत दोनों सदनों में, अभिभाषण कर सकेगा और इस प्रयोजन के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा। (2) राज्यपाल, राज्य के विधान-मंडल में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश, उस राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों को भेज सकेगा और जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया है वह सदन उस संदेश द्वारा विचार करने के लिए अपेक्षित विषय पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करेगा। 176. राज्यपाल का विशेष अभिभाषण--(1) राज्यपाल, विधानसभा के लिए प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात्‌ प्रथम सत्र के आरंभ में और प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरंभ मेंट विधानसभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में एक साथ समवेत दोनों सदनों में अभिभाषण करेगा और विधान-मंडल को उसके आह्वान के कारण बताएगा। (2) सदन या प्रत्येक सदन की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों द्वारा ऐसे अभिभाषण में निर्दिष्ट विषयों की चर्चा के लिए समय नियत करने के लिए 3*** उपबंध किया जाएगा। 177. सदनों के बारे में मंत्रियों और महाधिवक्ता के अधिकार --प्रत्येक मंत्री और राज्य के महाधिवक्ता को यह अधिकार होगा कि वह उस राज्य की विधानसभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में दोनों सदनों में बोले और उनकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले और विधान-मंडल की किसी समिति में, जिसमें उसका नाम सदस्य के रूप में दिया गया है, बोले और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले, किन्तु इस अनुच्छेद के आधार पर वह मत देने का हकदार नहीं होगा। राज्य के विधान-मंडल के अधिकारी 78. विधानसभा का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष--प्रत्येक राज्य की विधानसभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब विधानसभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी। 179. अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद रिक्त होना, पदत्याग और पद से हटाया जाना--विधानसभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य-- (क) यदि विधानसभा का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा; (ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य अध्यक्ष है तो उपाध्यक्ष को संबोधित और यदि वह सदस्य उपाध्यक्ष है तो अध्यक्ष को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और 1 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 8 द्वारा अनुच्छेद 174 के स्थान पर प्रतिस्थापित। 2 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 9 द्वारा '' प्रत्येक सत्र'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 9 द्वारा '' तथा सदन के अन्य कार्य पर इस चर्चा को अग्रता देने के लिए'' शब्दों का लोप किया गया। (ग) विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा: परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो: परंतु यह और कि जब कभी विधानसभा का विघटन किया जाता है तो विघटन के पश्चात्‌ होने वाले विधानसभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त नहीं करेगा। 180. अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का पालन करने या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की उपाध्यक्ष या अन्य व्यक्ति की शक्ति--(1) जब अध्यक्ष का पद रिक्त है तो उपाध्यक्ष, या यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो विधानसभा का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। (2) विधानसभा की किसी बैठक से अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधानसभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधानसभा द्वारा अवधारित किया जाए, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा। 181. जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उसका पीठासीन न होना--(1) विधानसभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब अध्यक्ष, या जब उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपाध्यक्ष, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 180 के खंड (2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वह उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनुपस्थित है। (2) जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विधानसभा में विचाराधीन है तब उसको विधानसभा में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा और वह अनुच्छेद 189 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर प्रथमतथ ही मत देने का हकदार होगा किंतु मत बराबर होने की दशा में मत देने का हकदार नहीं होगा। 182. विधान परिषद का सभापति और उपसभापति--विधान परिषद वाले प्रत्येक राज्य की विधान परिषद, यथाशीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना सभापति और उपसभापति चुनेगी और जब-जब सभापति या उपसभापति का पद रिक्त होता है तब-तब परिषद किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, सभापति या उपसभापति चुनेगी। 183. सभापति और उपसभापति का पद रिक्त होना, पदत्याग और पद से हटाया जाना--विधान परिषद के सभापति या उपसभापति के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य-- (क) यदि विधान परिषद का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा; (ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य सभापति है तो उपसभापति को संबोधित और यदि वह सदस्य उपसभापति है तो सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और (ग) विधान परिषद के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा: परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो। 184. सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन करने या सभापति के रूप में कार्य करने की उपसभापति या अन्य व्यक्ति की शक्ति--(1) जब सभापति का पद रिक्त है तब उपसभापति, यदि उपसभापति का पद भी रिक्त है तो विधान परिषद का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। (2) विधान परिषद की किसी बैठक से सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधान परिषद की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधान परिषद द्वारा अवधारित किया जाए, सभापति के रूप में कार्य करेगा। (ग) विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा: परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो: परंतु यह और कि जब कभी विधानसभा का विघटन किया जाता है तो विघटन के पश्चात्‌ होने वाले विधानसभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त नहीं करेगा। 180. अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का पालन करने या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की उपाध्यक्ष या अन्य व्यक्ति की शक्ति--(1) जब अध्यक्ष का पद रिक्त है तो उपाध्यक्ष, या यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो विधानसभा का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। (2) विधानसभा की किसी बैठक से अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधानसभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधानसभा द्वारा अवधारित किया जाए, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा। 181. जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उसका पीठासीन न होना--(1) विधानसभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब अध्यक्ष, या जब उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपाध्यक्ष, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 180 के खंड (2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वह उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनुपस्थित है। (2) जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विधानसभा में विचाराधीन है तब उसको विधानसभा में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा और वह अनुच्छेद 189 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर प्रथमतथ ही मत देने का हकदार होगा किंतु मत बराबर होने की दशा में मत देने का हकदार नहीं होगा। 182. विधान परिषद का सभापति और उपसभापति--विधान परिषद वाले प्रत्येक राज्य की विधान परिषद, यथाशीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना सभापति और उपसभापति चुनेगी और जब-जब सभापति या उपसभापति का पद रिक्त होता है तब-तब परिषद किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, सभापति या उपसभापति चुनेगी। 183. सभापति और उपसभापति का पद रिक्त होना, पदत्याग और पद से हटाया जाना--विधान परिषद के सभापति या उपसभापति के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य-- (क) यदि विधान परिषद का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा ; (ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य सभापति है तो उपसभापति को संबोधित और यदि वह सदस्य उपसभापति है तो सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और (ग) विधान परिषद के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा: परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो। 184. सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन करने या सभापति के रूप में कार्य करने की उपसभापति या अन्य व्यक्ति की शक्ति--(1) जब सभापति का पद रिक्त है तब उपसभापति, यदि उपसभापति का पद भी रिक्त है तो विधान परिषद का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। (2) विधान परिषद की किसी बैठक से सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधान परिषद की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधान परिषद द्वारा अवधारित किया जाए, सभापति के रूप में कार्य करेगा। सदस्यों की निरर्हताएँ 190. स्थानों का रिक्त होना--(1) कोई व्यक्ति राज्य के विधान-मंडल के दोनों सदनों का सदस्य नहीं होगा और जो व्यक्ति दोनों सदनों का सदस्य चुन लिया जाता है उसके एक या दूसरे सदन के स्थान को रिक्त करने के लिए उस राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा उपबंध करेगा। (2) कोई व्यक्ति पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट दो या अधिक राज्यों के विधान-मंडलों का सदस्य नहीं होगा और यदि कोई व्यक्ति दो या अधिक ऐसे राज्यों के विधान-मंडलों का सदस्य चुन लिया जाता है तो ऐसी अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ जो राष्ट्रपति द्वारा बनाए गए नियमों1 में विनिर्दिष्ट की जाए, ऐसे सभी राज्यों के विधान-मंडलों में ऐसे व्यक्ति का स्थान रिक्त हो जाएगा यदि उसने एक राज्य को छोड़कर अन्य राज्यों के विधान-मंडलों में अपने स्थान को पहले ही नहीं त्याग दिया है। (3) यदि राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य-- (क) अनुच्छेद 191 के खंड (2) में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो जाता है, या (ख) यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने स्थान का त्याग कर देता है और उसका त्यागपत्र, यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तो ऐसा होने पर उसका स्थान रिक्त हो जाएगा : परंतु उपखंड (ख) में निर्दिष्ट त्यागपत्र की दशा में, यदि प्राप्त जानकारी से या अन्यथा और ऐसी जाँच करने के पश्चात्‌, जो वह ठीक समझे, यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा त्यागपत्र स्वैझिछक या असली नहीं है तो वह ऐसे त्यागपत्र को स्वीकार नहीं करेगा। (4) यदि किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य साठ दिन की अवधि तक सदन की अनुज्ञा के बिना उसके सभी अधिवेशनों से अनुपस्थित रहता है तो सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकेगा: परंतु साठ दिन की उक्त अवधि की संगणना करने में किसी ऐसी अवधि को हिसाब में नहीं लिया जाएगा जिसके दौरान सदन सत्रावसित या निरंतर चार से अधिक दिनों के लिए स्थगित रहता है। 191. सदस्यता के लिए निरर्हताएँ --(1) कोई व्यक्ति किसी राज्य की विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा-- (क) यदि वह भारत सरकार के या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना राज्य के विधान-मंडल ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है; (ख) यदि वह विकृतचित्त है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है; (ग) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है; (घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली है या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है; (ङ) यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है। स्पष्टीकरण--इस खंड के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार के या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है। 1 देखिए विधि मंत्रालय की अधिसूचना सं.एफ. 46/50-सी, दिनांक 26 जनवरी, 1950, भारत का राजपत्र, असाधारण, पृष्ठ 678 में प्रकाशित समसामयिक सदस्यता प्रति-ोध नियम, 1950। 2 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 4 द्वारा (1-3-1985 से) '' अनुच्छेद 191 के खंड (1)'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (तैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा उपखंड (ख) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (तैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा अंतःस्थापित। 5 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 5 द्वारा (1-3-1985 से) '' (2) इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। सदस्यों की निरर्हताएँ 190. स्थानों का रिक्त होना--(1) कोई व्यक्ति राज्य के विधान-मंडल के दोनों सदनों का सदस्य नहीं होगा और जो व्यक्ति दोनों सदनों का सदस्य चुन लिया जाता है उसके एक या दूसरे सदन के स्थान को रिक्त करने के लिए उस राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा उपबंध करेगा। (2) कोई व्यक्ति पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट दो या अधिक राज्यों के विधान-मंडलों का सदस्य नहीं होगा और यदि कोई व्यक्ति दो या अधिक ऐसे राज्यों के विधान-मंडलों का सदस्य चुन लिया जाता है तो ऐसी अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ जो राष्ट्रपति द्वारा बनाए गए नियमों1 में विनिर्दिष्ट की जाए, ऐसे सभी राज्यों के विधान-मंडलों में ऐसे व्यक्ति का स्थान रिक्त हो जाएगा यदि उसने एक राज्य को छोड़कर अन्य राज्यों के विधान-मंडलों में अपने स्थान को पहले ही नहीं त्याग दिया है। (3) यदि राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य-- (क) अनुच्छेद 191 के खंड (2) में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो जाता है, या (ख) यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने स्थान का त्याग कर देता है और उसका त्यागपत्र, यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तो ऐसा होने पर उसका स्थान रिक्त हो जाएगा : परंतु उपखंड (ख) में निर्दिष्ट त्यागपत्र की दशा में, यदि प्राप्त जानकारी से या अन्यथा और ऐसी जाँच करने के पश्चात्‌, जो वह ठीक समझे, यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा त्यागपत्र स्वैच्छिक या असली नहीं है तो वह ऐसे त्यागपत्र को स्वीकार नहीं करेगा। (4) यदि किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य साठ दिन की अवधि तक सदन की अनुज्ञा के बिना उसके सभी अधिवेशनों से अनुपस्थित रहता है तो सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकेगा: परंतु साठ दिन की उक्त अवधि की संगणना करने में किसी ऐसी अवधि को हिसाब में नहीं लिया जाएगा जिसके दौरान सदन सत्रावसित या निरंतर चार से अधिक दिनों के लिए स्थगित रहता है। 191. सदस्यता के लिए निरर्हताएँ --(1) कोई व्यक्ति किसी राज्य की विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा-- (क) यदि वह भारत सरकार के या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना राज्य के विधान-मंडल ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है; (ख) यदि वह विकृतचित्त है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है; (ग) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है; (घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली है या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है; (ङ) यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है। स्पष्टीकरण--इस खंड के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार के या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है। 1 देखिए विधि मंत्रालय की अधिसूचना सं.एफ. 46/50-सी, दिनांक 26 जनवरी, 1950, भारत का राजपत्र, असाधारण, पृष्ठ 678 में प्रकाशित समसामयिक सदस्यता प्रतिषेध नियम, 1950। 2 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 4 द्वारा (1-3-1985 से) '' अनुच्छेद 191 के खंड (1)'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (तैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा उपखंड (ख) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 4 संविधान (तैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा अंतःस्थापित। 5 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 5 द्वारा (1-3-1985 से) '' (2) इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। (2) अनुच्छेद 197 और अनुच्छेद 198 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई विधेयक विधान परिषद वाले राज्य के विधान-मंडल के सदनों द्वारा तब तक पारित किया गया नहीं समझा जाएगा जब तक संशोधन के बिना या केवल ऐसे संशोधनों सहित, जिन पर दोनों सदन सहमत हो गए हैं, उस पर दोनों सदन सहमत नहीं हो जाते हैं। (3) किसी राज्य के विधानमंडल में लंबित विधेयक उसके सदन या सदनों के सत्रावसान के कारण व्यपगत नहीं होगा। (4) किसी राज्य की विधान परिषद में लंबित विधेयक, जिसको विधानसभा ने पारित नहीं किया है, विधानसभा के विघटन पर व्यपगत नहीं होगा। (5) कोई विधेयक, जो किसी राज्य की विधानसभा में लंबित है या जो विधानसभा द्वारा पारित कर दिया गया है और विधान परिषद में लंबित है, विधानसभा के विघटन पर व्यपगत हो जाएगा। 197. धन विधेयकों से भिन्न विधेयकों के बारे में विधान परिषद की शक्तियों पर निर्बंधन --(1) यदि विधान परिषद वाले राज्य की विधानसभा द्वारा किसी विधेयक के पारित किए जाने और विधान परिषद को पारेषित किए जाने के पश्चात्‌‌-- (क) विधान परिषद द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया जाता है, या (ख) विधान परिषद के समक्ष विधेयक रखे जाने की तारीख से, उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना, तीन मास से अधिक बीत गए हैं, या (ग) विधान परिषद द्वारा विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पारित किया जाता है जिनसे विधानसभा सहमत नहीं होती है, तो विधानसभा विधेयक को, अपनी प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों के अधीन रहते हुए, उसी या किसी पश्चात्‌वर्ती सत्र में ऐसे संशोधनों सहित या उसके बिना, यदि कोई हों, जो विधान परिषद ने किए हैं, सुझाए हैं या जिनसे विधान परिषद सहमत है, पुनःपारित कर सकेगी और तब इस प्रकार पारित विधेयक को विधान परिषद को पारेषित कर सकेगी। (2) यदि विधानसभा द्वारा विधेयक इस प्रकार दुबारा पारित कर दिए जाने और विधान परिषद को पारेषित किए जाने के पश्चात्‌ -- (क) विधान परिषद द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया जाता है, या (ख) विधान परिषद के समक्ष विधेयक रखे जाने की तारीख से, उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना, एक मास से अधिक बीत गया है, या (ग) विधान परिषद द्वारा विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पारित किया जाता है जिनसे विधानसभा सहमत नहीं होती है, तो विधेयक राज्य के विधान-मंडल के सदनों द्वारा ऐसे संशोधनों सहित, यदि कोई हों, जो विधान परिषद ने किए हैं या सुझाए हैं और जिनसे विधानसभा सहमत है, उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधानसभा द्वारा दुबारा पारित किया गया था। (3) इस अनुच्छेद की कोई बात धन विधेयक को लागू नहीं होगी। 198. धन विधेयकों के संबंध में विशेष प्रक्रिया--(1) धन विधेयक विधान परिषद में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा। (2) धन विधेयक विधान परिषद वाले राज्य की विधानसभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात्‌ विधान परिषद को उसकी सिफारिशों के लिए पारेषित किया जाएगा और विधान परिषद विधेयक की प्राप्ति की तारीख से चौदह दिन की अवधि के भीतर विधेयक को अपनी सिफारिशों सहित विधानसभा को लौटा देगी और ऐसा होने पर विधानसभा, विधान परिषद की सभी या किन्हीं सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकेगी। (3) यदि विधानसभा, विधान परिषद की किसी सिफारिश को स्वीकार कर लेती है तो धन विधेयक विधान परिषद द्वारा सिफारिश किए गए और विधानसभा द्वारा स्वीकार किए गए संशोधनों सहित दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया समझा जाएगा। (4) यदि विधानसभा, विधान परिषद की किसी भी सिफारिश को स्वीकार नहीं करती है तो धन विधेयक विधान परिषद द्वारा सिफारिश किए गए किसी संशोधन के बिना, दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधानसभा द्वारा पारित किया गया था। (5) यदि विधानसभा द्वारा पारित और विधान परिषद को उसकी सिफारिशों के लिए पारेषित धन विधेयक उक्त चौदह दिन की अवधि के भीतर विधानसभा को नहीं लौटाया जाता है तो उक्त अवधि की समाप्ति पर वह दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधानसभा द्वारा पारित किया गया था। 199. '' धन विधेयक'' की परिभाषा--(1) इस अध्याय के प्रयोजनों के लिए, कोई विधेयक धन विधेयक समझा जाएगा यदि उसमें केवल निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों से संबंधित उपबंध हैं, अर्थात्‌ -- (क) किसी कर का अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन; (ख) राज्य द्वारा धन उधार लेने का या कोई प्रत्याभूति देने का विनियमन अथवा राज्य द्वारा अपने। पर ली गई या ली जाने वाली किन्हीं वित्तीय बाध्यताओं से संबंधित विधि का संशोधन; (ग) राज्य की संचित निधि या आकस्मिकता निधि की ओंभरक्षा, ऐसी किसी निधि में धन जमा करना या उसमें से धन निकालना; (घ) राज्य की संचित निधि में से धन का विनियोग; (ङ) किसी व्यय को राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना या ऐसे किसी व्यय की रकम को बढ़ाना; (च) राज्य की संचित निधि या राज्य के लोक लेखे मद्धे धन प्राप्त करना अथवा ऐसे धन की अभिरक्षा या उसका निर्गमन; या (छ) उपखंड (क) से उपखंड (च) में विनिर्दिष्ट किसी विषय का आनुषंगिक कोई विषय। (2) कोई विधेयक केवल इस कारण धन विधेयक नहीं समझा जाएगा, कि वह जुर्मानों अन्य धनीय शास्तियों के अधिरोपण का अथवा अनुज्ञप्तियों के लिए फीसों की या की गई सेवाओं के लिए फीसों की माँग का या उनके संदाय का उपबंध करता है अथवा इस कारण धन विधेयक नहीं समझा जाएगा कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन का उपबंध करता है। (3) यदि यह प्रश्न उठता है कि विधान परिषद वाले किसी राज्य के विधान-मंडल में पुरःस्थापित कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं तो उस पर उस राज्य की विधानसभा के अध्यक्ष का विनिश्चय अंतिम होगा। (4) जब धन विधेयक अनुच्छेद 198 के अधीन विधान परिषद को पारेषित किया जाता है और जब वह अनुच्छेद 200 के अधीन अनुमति के लिए राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तब प्रत्येक धन विधेयक पर विधानसभा के अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण पृष्ठांकित किया जाएगा कि वह धन विधेयक है। 200. विधेयकों पर अनुमति--जब कोई विधेयक राज्य की विधानसभा द्वारा या विधान परिषद वाले राज्य में विधान-मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है तब वह राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और राज्यपाल घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है अथवा वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है : परंतु राज्यपाल अनुमति के लिए अपने समक्ष विधेयक प्रस्तुत किए जाने के पश्चात्‌ यथाशीघ्र उस विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है तो, सदन या सदनों को इस संदेश के साथ लौटा सकेगा कि सदन या दोनों सदन विधेयक पर या उसके किन्हीं विनिर्दिष्ट उपबंधों पर पुनर्विचार करें और विशि-टतया किन्हीं ऐसे संशोधनों के पुरःस्थापन की वांछनीयता पर विचार करें जिनकी उसने अपने संदेश में सिफारिश की है और जब विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब सदन या दोनों सदन विधेयक पर तदनुसार पुनर्विचार करेंगे और यदि विधेयक सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है और राज्यपाल के समक्ष अनुमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है तो राज्यपाल उस पर अनुमति नहीं रोकेगा : परंतु यह और कि जिस विधेयक से, उसके विधि बन जाने पर, राज्यपाल की राय में उच्च न्यायालय की शक्तियों का ऐसा अल्पीकरण होगा कि वह स्थान, जिसकी पूर्ति के लिए वह न्यायालय इस संविधान द्वारा परिकल्पित है, संकटापन्न हो जाएगा, उस विधेयक पर राज्यपाल अनुमति नहीं देगा, किंतु उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखेगा। 201. विचार के लिए आरक्षित विधेयक--जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख लिया जाता है तब राष्ट्रपति घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है: परंतु विधेयक धन विधेयक नहीं है वहाँ राष्ट्रपति राज्यपाल को यह निदेश दे सकेगा कि वह विधेयक को, यथास्थिति, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों को ऐसे संदेश के साथ, जो अनुच्छेद 200 के पहले परंतुक में वर्णित है, लौटा दे और जब कोई विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब ऐसा संदेश मिलने की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर सदन या सदनों द्वारा उस पर तदनुसार पुनर्विचार किया जाएगा और यदि वह सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति के समक्ष उसके विचार के लिए फिर से प्रस्तुत किया जाएगा। वित्तीय विषयों के संबंध में प्रक्रिया 202. वार्षिक वित्तीय विवरण--(1) राज्यपाल प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों के समक्ष उस राज्य की उस वर्ष के लिए प्राक्कलित प्राप्तियों और व्यय का विवरण रखवाएगा जिसे इस भाग '' वार्षिक वित्तीय विवरण'' कहा गया है। (2) वार्षिक वित्तीय विवरण में दिए हुए व्यय के प्राक्कलनों में -- (क) इस संविधान में राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय के रूप में वर्णित व्यय की पूर्ति के लिए अपेक्षित राशियाँ, और (ख) राज्य की संचित निधि में से किए जाने के लिए प्रस्थापित अन्य व्यय की पूर्ति के लिए अपेक्षित राशियाँ, पृथक्‌-पृथक्‌ दिखाई जाएँगी और राजस्व लेखे होने वाले व्यय का अन्य व्यय से भेद किया जाएगा। (3) निम्नलिखित व्यय प्रत्येक राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय होगा, अर्थात्‌ : -- (क) राज्यपाल की उपलब्धियाँ और भत्ते तथा उसके पद से संबंधित अन्य व्यय; (ख) विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के तथा विधान परिषद वाले राज्य की दशा में विधान परिषद के सभापति और उपसभापति के भी वेतन और भत्ते; (ग) ऐसे ऋण भार जिनका दायित्व राज्य पर है, जिनके अंतर्गत ब्याज, निक्षेप निधि भार और मोचन भार तथा उधार लेने और ऋण सेवा और ऋण मोचन से संबंधित अन्य व्यय हैं; (घ) किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतनों और भत्तों के संबंध में व्यय; (ङ) किसी न्यायालय या मापयस्थम्‌ अधिकरण के निर्णय, डिक्री या पंचाट की तुष्टि के लिए अपेक्षित राशियाँ; (च) कोई अन्य व्यय जो इस संविधान द्वारा या राज्य के विधान-मंडल द्वारा, विधि द्वारा, इस प्रकार भारित घोषित किया जाता है। 203. विधान-मंडल में प्राक्कलनों के संबंध में प्रक्रिया--(1) प्राक्कलनों में से जितने प्राक्कलन राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय से संबंधित हैं वे विधानसभा में मतदान के लिए नहीं रखे जाएँगे, किन्तु इस खंड की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह विधान-मंडल में उन प्राक्कलनों में से किसी प्राक्कलन पर चर्चा को निवारित करती है। (2) उक्त प्राक्कलनों में से जितने प्राक्कलन अन्य व्यय से संबंधित हैं वे विधानसभा के समक्ष अनुदानों की मांगों के रूप में रखे जाएँगे और विधानसभा को शक्ति होगी कि वह किसी माँग को अनुमति दे या अनुमति देने से इंकार कर दे अथवा किसी माँग को, उसमें विनिर्दिष्ट रकम को कम करके, अनुमति दे। (3) किसी अनुदान की माँग राज्यपाल की सिफारिश पर ही की जाएगी, अन्यथा नहीं। 204. विनियोग विधेयक--(1) विधानसभा द्वारा अनुच्छेद 203 के अधीन अनुदान किए जाने के पश्चात्‌ यथाशक्य शीघ्र, राज्य की संचित निधि में से-- (क) विधानसभा द्वारा इस प्रकार किए गए अनुदानों की, और (ख) राज्य की संचित निधि पर भारित, किन्तु सदन या सदनों के समक्ष पहले रखे गए विवरण में दर्शित रकम से किसी भी दशा में अनधिक व्यय की, पूर्ति के लिए अपेक्षित सभी धनराशियों के विनियोग का उपबंध करने के लिए विधेयक पुरःस्थापित किया जाएगा। (2) इस प्रकार किए गए किसी अनुदान की रकम में परिवर्तन करने या अनुदान के लक्ष्य को बदलने अथवा राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय की रकम में परिवर्तन करने का प्रभाव रखने वाला कोई संशोधन, ऐसे किसी विधेयक में राज्य के विधान-मंडल के सदन में या किसी सदन में प्रस्थापित नहीं किया जाएगा और पीठासीन व्यक्ति का इस बारे में विनिश्चय अंतिम होगा कि कोई संशोधन इस खंड के अधीन अग्राह्य है या नहीं। (3) अनुच्छेद 205 और अनुच्छेद 206 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य की संचित निधि में से इस अनुच्छेद के उपबंधों के अनुसार पारित विधि द्वारा किए गए विनियोग के अधीन ही कोई धन निकाला जाएगा, अन्यथा नहीं। 205. अनुपूरक, अतिरिक्त या अधिक अनुदान--(1) यदि-- (क) अनुच्छेद 204 के उपबंधों के अनुसार बनाई गई किसी विधि द्वारा किसी विशिष्ट सेवा पर चालू वित्तीय वर्ष के लिए व्यय किए जाने के लिए प्राधिकृत कोई रकम उस वर्ष के प्रयोजनों के लिए अपर्याप्त पाई जाती है या उस वर्ष के वार्षिक वित्तीय विवरण में अनुध्यात न की गई किसी नई सेवा पर अनुपूरक या अतिरिक्त व्यय की चालू वित्तीय वर्ष के दौरान आवश्यकता पैदा हो गई है, या (ख) किसी वित्तीय वर्ष के दौरान किसी सेवा पर उस वर्ष और उस सेवा के लिए अनुदान की गई रकम से अधिक कोई धन व्यय हो गया है, तो राज्यपाल, यथास्थिति, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों के समक्ष उस व्यय की प्राक्कलित रकम को दर्शित करने वाला दूसरा विवरण रखवाएगा या राज्य की विधानसभा में ऐसे आधिक्य के लिए माँग प्रस्तुत करवाएगा। (2) ऐसे किसी विवरण और व्यय या माँग के संबंध में तथा राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय या ऐसी माँग से संबंधित अनुदान की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में भी, अनुच्छेद 202, अनुच्छेद 203 और अनुच्छेद 204 के उपबंध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण और उसमें वर्णित व्यय के संबंध में या किसी अनुदान की किसी माँग के संबंध में और राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय या अनुदान की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं। 206. लेखानुदान, प्रत्ययानुदान और अपवादानुदान--(1) इस अध्याय के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य की विधानसभा को -- (क) किसी वित्तीय वर्ष के भाग के लिए प्राक्कलित व्यय के संबंध में कोई अनुदान, उस अनुदान के लिए मतदान करने के लिए अनुच्छेद 203 में विहित प्रक्रिया के पूरा होने तक और उस व्यय के संबंध में अनुच्छेद 204 के उपबंधों के अनुसार विधि के पारित होने तक, अग्रिम देने की; (ख) जब किसी सेवा की महत्ता या उसके अनिश्चित रूप के कारण माँग ऐसे ब्यौरे के साथ वर्णित नहीं की जा सकती है जो वार्षिक वित्तीय विवरण में सामान्यतया दिया जाता है तब राज्य के संपत्ति स्रोतों पर अप्रत्याशित माँग की पूर्ति के लिए अनुदान करने की ; (ग) किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का जो अनुदान भाग नहीं है ऐसा कोई अपवादानुदान करने की, शक्ति होगी और जिन प्रयोजनों के लिए उक्त अनुदान किए गए हैं उनके लिए राज्य की संचित निधि में से धन निकालना विधि द्वारा प्राधिकृत करने की राज्य के विधान-मंडल को शक्ति होगी। (2) खंड (1) के अधीन किए जाने वाले किसी अनुदान और उस खंड के अधीन बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में अनुच्छेद 203 और अनुच्छेद 204 के उपबंध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण में वर्णित किसी व्यय के बारे में कोई अनुदान करने के संबंध में और राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं। 207. वित्त विधेयकों के बारे में विशेष उपबंध--(1) अनुच्छेद 199 के खंड (1) के उपखंड (क) से उपखंड (च) में विनिर्दिष्ट किसी विषय के लिए उपबंध करने वाला विधेयक या संशोधन राज्यपाल की सिफारिश से ही पुरःस्थापित या प्रस्तावित किया जाएगा, अन्यथा नहीं और ऐसा उपबंध करने वाला विधेयक विधान परिषद में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा: परंतु किसी कर के घटाने या उत्सादन के लिए उपबंध करने वाले किसी संशोधन के प्रस्ताव के लिए इस खंड के अधीन सिफारिश की अपेक्षा नहीं होगी। (2) कोई विधेयक या संशोधन उक्त विषयों में से किसी विषय के लिए उपबंध करने वाला केवल इस कारण नहीं समझा जाएगा कि वह जुर्मानों या अन्य धनीय शास्तियों के अधिरोपण का अथवा अनुज्ञप्तियों के लिए फीसों की या की गई सेवाओं के लिए फीसों की माँग का या उनके संदाय का उपबंध करता है अथवा इस कारण नहीं समझा जाएगा कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन का उपबंध करता है। (3) जिस विधेयक को अधिनियमित और प्रवर्तित किए जाने पर राज्य की संचित निधि में से व्यय करना पड़ेगा वह विधेयक राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन द्वारा तब तक पारित नहीं किया जाएगा जब तक ऐसे विधेयक पर विचार करने के लिए उस सदन से राज्यपाल ने सिफारिश नहीं की है। साधारणतया प्रक्रिया 208. प्रक्रिया के नियम--(1) इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधान-मंडल का कोई सदन अपनी प्रक्रिया और अपने कार्य संचालन के विनियमन के लिए नियम बना सकेगा। (2) जब तक खंड (1) के अधीन नियम नहीं बनाए जाते हैं तब तक इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले तत्स्थानी प्रांत के विधान-मंडल के संबंध में जो प्रक्रिया के नियम और स्थायी आदेश प्रवृत्त थे वे ऐसे उपांतरणों और अनुकूलनों के अधीन रहते हुए उस राज्य के विधान-मंडल के संबंध में प्रभावी होंगे जिन्हें, यथास्थिति, विधानसभा का अध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति उनमें करे। (3) राज्यपाल, विधान परिषद वाले राज्य में विधानसभा के अध्यक्ष और विधान परिषद के सभापति से परामर्श करने के पश्चात्‌, दोनों सदनों में परस्पर संचार से संबंधित प्रक्रिया के नियम बना सकेगा। 209. राज्य के विधान-मंडल में वित्तीय कार्य संबंधी प्रक्रिया का विधि द्वारा विनियमन--किसी राज्य का विधान-मंडल, वित्तीय कार्य को समय के भीतर पूरा करने के प्रयोजन के लिए किसी वित्तीय विषय से संबंधित या राज्य की संचित निधि में से धन का विनियोग करने के लिए किसी विधेयक से संबंधित, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों की प्रक्रिया और कार्य संचालन का विनियमन विधि द्वारा कर सकेगा तथा यदि और तक इस प्रकार बनाई गई किसी विधि का कोई उपबंध अनुच्छेद 208 के खंड (1) के अधीन राज्य के विधान-मंडल के सदन या किसी सदन द्वारा बनाए गए नियम से या उस अनुच्छेद के खंड (2) के अधीन राज्य विधान-मंडल के संबंध में प्रभावी किसी नियम या स्थायी आदेश से असंगत है तो और वहां तक ऐसा उपबंध अभिभावी होगा। 210. विधान-मंडल में प्रयोग की जाने वाली भाषा--(1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधान-मंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा : परंतु, यथास्थिति, विधानसभा का अध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो पूर्वोक्त भाषाओं में से किसी भाषा में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा। (2) जब तक राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो '' या अंग्रेजी में'' शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया होः 1[परंतु 2[हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा राज्यों के विधान-मंडलों] के संबंध में यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले '' पंद्रह वर्ष'' शब्दों के स्थान पर '' पच्चीस वर्ष'' शब्द रख दिए गए हों : 3[परंतु यह और कि 4-5[अरुणाचल प्रदेश, गोवा और मिजोरम राज्यों के विधान-मंडलों के संबंध में यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले '' पंद्रह वर्ष'' शब्दों के स्थान पर '' चालीस वर्ष'' शब्द रख दिए गए हों।] 211. विधान-मंडल में चर्चा पर निर्बंधन--उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में राज्य के विधान-मंडल में कोई चर्चा नहीं होगी। 212. न्यायालयों द्वारा विधान-मंडल की कार्यवाहियों की जाँच न किया जाना--(1) राज्य के विधान-मंडल की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा। (2) राज्य के विधान-मंडल का कोई अधिकारी या सदस्य, जिसमें इस संविधान द्वारा या इसके अधीन उस विधान-मंडल में प्रक्रिया या कार्य संचालन का विनियमन करने की अथवा व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियाँ निहित हैं, उन शक्तियों के अपने द्वारा प्रयोग के विषय में किसी न्यायालय की अधिकारिता के अधीन नहीं होगा। 1 हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1970 (1970 का 53) की धारा 46 द्वारा (25-1-1971 से) अंतःस्थापित। 2 पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 (1971 का 81) की धारा 71 द्वारा (21-1-1972 से) '' हिमाचल प्रदेश राज्य के विधान-मंडल'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 मिजोरम राज्य अधिनियम, 1986 (1986 का 34) की धारा 39 द्वारा (20-2-1987 से) अंतःस्थापित। 4 अरुणाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1986 (1986 का 69) की धारा 42 द्वारा (20-2-1987 से) '' मिजोरम राज्य के विधान-मंडल'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 5 गोवा, दमण और दीव पुनर्गठन अधिनियम, 1987 (1987 का 18) की धारा 63 द्वारा (30-5-1987 से) '' अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम'' के स्थान पर प्रतिस्थापित भाग 6: राज्य: अध्याय 4- राज्यपाल की विधायी शक्ति 213. विधान-मंडल के विश्रांतिकाल में अध्यादेश प्रख्यापित करने की राज्यपाल की शक्ति--(1) उस समय को छोड़कर जब किसी राज्य की विधान सभा सत्र में है या विधान परिषद वाले राज्य में विधान-मंडल के दोनों सदन सत्र में है, यदि किसी समय राज्यपाल का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जिनके कारण तुरंत कार्रवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है तो वह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उसे उन परिस्थितियाँ में अपेक्षित प्रतीत हों: परंतु राज्यपाल, राष्ट्रपति के अनुदेशों के बिना, कोई ऐसा अध्यादेश प्रख्यापित नहीं करेगा यदि-- (क) वैसे ही उपबंध अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक को विधान-मंडल में पुर:स्थापित किए जाने के लिए राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी की अपेक्षा इस संविधान के अधीन होती; या (ख) वह वैसे ही उपबंध अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखना आवश्यक समझता; या (ग) वैसे हर उपबंध अंतर्विष्ट करने वाला राज्य के विधान-मंडल का अधिनियम इस संविधान के अधीन तब तक अधिमान्य होता जब तक राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखे जाने पर उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त नहीं हो गई होती। (2) इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित अध्यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो राज्य के विधान-मंडल के ऐसे अधिनियम का होता है जिसे राज्यपाल ने अनुमति दे दी है, किंतु प्रत्येक ऐसा अध्यादेश -- (क) राज्य की विधान सभा के समक्ष और विधान परिषद वाले राज्य में दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा तथा विधान-मंडल के पुन: समवेत होने से छह सप्ताह की समाप्ति पर या यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले विधान सभा उसके अनुमोदन का संकल्प पारित कर देती है और यदि विधान परिषद है तो वह उससे सहमत हो जाती है तो, यथास्थिति, संकल्प के पारित होने पर या विधान परिषद द्वारा संकल्प से सहमत होने पर प्रवर्तन में नहीं रहेगा; और (ख) राज्यपाल द्वारा किसी भी समय वापस लिया जा सकेगा। स्पष्टीकरण - जहाँ विधान परिषद वाले राज्य के ‍विधान मंडल के सदन, भिन्न-भिन्न तारीखों को पुन: समवेत करने के लिए। आहूत किए जाते हैं वहाँ इस खंड के प्रयोजनों के लिए छह सप्ताह की अवधि की गणना उन तारीखों में से पश्चातवर्ती तारीख से की जाएगी। (3) यदि और जहाँ तक इस अनुच्छेद के अधीन अध्यादेश कोई ऐसा उपबंध करता है जो राज्य के विधानमंडल के ऐसे अधिनियम में जिसे राज्यपाल ने अन‍ुमति दे दी है, अधिनियम किए जाने पर विधिमान्य नहीं होता तो और वहाँ तक वह अध्यादेश शून्य होगा : परंतु राज्य के विधान-मंडल के ऐसे अधिनियम के, जो समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के बारे में संसद के किसी अधिनियम या किसी विद्यमान विधि के विरुद्ध है, प्रभाव से संबंधित इस संविधान के उपबंधों के प्रयोजन के लिए यह है कि कोई अध्यादेश, जो राष्ट्रपति के अनुदेशों के अनुसरण में इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित किया जाता है, राज्य के विधानमंडल का ऐसा अधिनियम समझा जाएगा जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा गया और जिसे उसने अनुमति दे दी है। भाग 6: राज्य: अध्याय 5- राज्यों के उच्च न्यायालय 214. राज्यों के लिए उच्च न्यायालय--1*** प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा। 2 * * * * * * 215. उच्च न्यायालयों का अभिलेख न्यायालय होना--प्रत्येक उच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियाँ होंगी। 216. उच्च न्यायालयों का गठन--प्रत्येक उच्च न्यायालय मुख्‍य न्यायमूर्ति और ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे। 3 * * * * * * 217. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और उसके पद की शर्तें -- (1) भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति से, उस राज्य के राज्यपाल से और मुख्‍य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में उस उच्च न्यायालय के मुख्‍य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात्‌, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश 4[अपर या कार्यकारी न्यायाधीश की दशा में अनुच्छेद 224 में उपबंधित रूप में पद धारण करेगा और किसी अन्य दशा में तब तक पद धारण करेगा जब तक वह 5[बासठ वर्ष] की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है] परंतु-- (क) कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा ; (ख) किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अनुच्छेद 124 के खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा ; (ग) किसी न्यायाधीश का पद, राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा उसे भारत के राज्यक्षेत्र में किसी अन्य उच्च न्यायालय को, अंतरित किए जाने पर रिक्त हो जाएगा। (2) कोई व्यक्ति, किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हत होगा जब वह भारत का नागिरक है और -- 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा कोष्ठक और अंक ''(1)'' का लोप किया गया। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा खंड (2) और (3) का लोप किया गया। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 11 द्वारा परंतुक का लोप किया गया। 4 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 12 द्वारा ''तब तक पद धारण करेगा जब तक कि वह साठ वर्ष की आयु प्राप्त न कर ले'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 5 संविधान (पंद्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा ''साठ वर्ष'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। (क) भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका है; या (ख) किसी 1*** उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा है; 2*** स्पष्टीकरण-- इस खंड के प्रयोजनों के लिए-- (क) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान कोई व्यक्ति न्यायिक पद धारण करने के पश्चात्‌ किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है या उसने किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है; (कक) किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात्‌ न्यायिक पद धारण किया है या किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है; (ख) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने या किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने, यथास्थिति, ऐसे क्षेत्र में जो 15 अगस्त, 1947 से पहले भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में समाविष्ट था, न्यायिक पद धारण किया है या वह ऐसे किसी क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है। (3) यदि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की आयु के बारे में कोई प्रश्न उठता है तो उस प्रश्न का विनिश्चय भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात्‌ राष्ट्रपति का विनिश्चय अंतिम होगा। 218. उच्चतम न्यायालय से संबंधित कुछ उपबंधों का उच्च न्यायालयों को लागू होना--अनुच्छेद 124 के खंड (4) और खंड (5) के उपबंध, जहाँ-जहाँ उनमें उच्चतम न्यायालय के प्रति निर्देश है वहाँ-वहाँ उच्च न्यायालय के प्रति निर्देश प्रतिस्थापित करके, उच्च न्यायालय के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उच्चतम न्यायालय के संबंध में लागू होते हैं। 219. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान--7*** उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति, अपना पद ग्रहण करने से पहले, उस राज्य के राज्यपाल या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा। 220. स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात्‌ विधि-व्यवसाय पर निर्बंधन--कोई व्यक्ति, जिसने इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात्‌ किसी उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है, उच्चतम न्यायालय और अन्य उच्च न्यायालयों के सिवाय भारत में किसी न्यायालय या किसी प्राधिकारी के समक्ष अभिवंचन या कार्य नहीं करेगा। 1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा '' पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य में के'' शब्दों का लोप किया गया। 2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 36 द्वारा (3-1-1977 से) शब्द '' या'' और उपखंड (ग) अंतःस्थापित किए गए और संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) उनका लोप किया गया। 3 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) अंतःस्थापित। 4 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) खंड (क) को खंड (कक) के रूप में पुनःअक्षरांकित किया गया। 5 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 36 द्वारा(3-1-1977 से) '' न्यायिक पद धारण किया हो'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 6 संविधान (पंद्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से ) अंतःस्थापित। 7 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा '' किसी राज्य में'' शब्दों का लोप किया गया। 8 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 13 द्वारा अनुच्छेद 220 के स्थान पर प्रतिस्थापित। (क) भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका है ; या (ख) किसी 1*** उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा है; 2*** स्पष्टीकरण-- इस खंड के प्रयोजनों के लिए-- (क) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान कोई व्यक्ति न्यायिक पद धारण करने के पश्चात्‌ किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है या उसने किसी अधिक रण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है; (कक) किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात्‌ न्यायिक पद धारण किया है या किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है; (ख) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने या किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने, यथास्थिति, ऐसे क्षेत्र में जो 15 अगस्त, 1947 से पहले भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में समाविष्ट था, न्यायिक पद धारण किया है या वह ऐसे किसी क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है। (3) यदि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की आयु के बारे में कोई प्रश्न उठता है तो उस प्रश्न का विनिश्चय भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात्‌ राष्ट्रपति का विनिश्चय अंतिम होगा। स्पष्टीकरण-- इस अनुच्छेद में, '' उच्च न्यायालय'' पद के अंतर्गत संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 के प्रारंभ1 से पहले विद्यमान पहली अनुसूची के भाग ख में विनिर्दिष्ट राज्य का उच्च न्यायालय नहीं है। 221. न्यायाधीशों के वेतन आदि--(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो संसद, विधि द्वारा, अवधारिंत करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। (2) प्रत्येक न्यायाधीश ऐसे भत्तों का तथा अनुपस्थिति छुट्टी और पेंशन के संबंध में ऐसे अधिकारों का, जो संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन समय-समय पर अवधारित किए जाएँ , और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किए जाते हैं तब तक ऐसे भत्तों और अधिकारों का जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा। परंतु किसी न्यायाधीश के भत्तों में और अनुपस्थिति छुट्टी या पेंशन के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात्‌ उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा। 222. किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरण--(1) राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात्‌ 3*** किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरण कर सकेगा। (2) जब कोई न्यायाधीश इस प्रकार अंतरित किया गया है या किया जाता है तब वह उस अवधि के दौरान, जिसके दौरान वह संविधान (पंद्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 के प्रारंभ के पश्चात्‌ दूसरे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सेवा करता है, अपने वेतन के अतिरिक्त ऐसा प्रतिकरात्मक भत्ता, जो संसद विधि द्वारा अवधारित करे, और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किया जाता है तब तक ऐसा प्रतिकरात्मक भत्ता, जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा नियत करे, प्राप्त करने का हकदार होगा। 223. कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति--जब किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति का पद रिक्त है या जब ऐसा मुख्य न्यायमूर्ति अनुपस्थिति के कारण या अन्यथा अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तब न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से ऐसा एक न्यायाधीश, जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। 224. अपर और कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति--(1) यदि किसी उच्च न्यायालय के कार्य में किसी अस्थायी वृद्धि के कारण या उसमें कार्य की बकाया के कारण राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि उस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या को तत्समय बढ़ा देना चाहिए तो राष्ट्रपति सम्यक्‌ रूप से आहत व्यक्तियों को दो वर्ष से अनधिक की ऐसी अवधि के लिए जो वह विनिर्दिष्ट करे, उस न्यायालय के अपर न्यायाधीश नियुक्त कर सकेगा। (2) जब किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न कोई न्यायाधीश अनुपस्थिति के कारण या अन्य कारण से अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है या मुख्य न्यायमूर्ति के रूप में अस्थायी रूप से कार्य करने के लिए नियुक्त किया जाता है तब राष्ट्रपति सम्यक्‌ रूप से अर्हित किसी व्यक्ति को तब तक के लिए उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिए नियुक्त कर सकेगा जब तक स्थायी न्यायाधीश अपने कर्तव्यों को फिर से नहीं संभाल लेता है। (3) उच्च न्यायालय के अपर या कार्यकारी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कोई व्यक्ति : बासठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात्‌ पद धारण नहीं करेगा। 224क. उच्च न्यायालयों की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति-- इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति, किसी भी समय, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति से, जो उस उच्च न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जिससे इस प्राकर अनुरोध किया जाता है, इस प्रकार बैठने और कार्य करने के दौरान ऐसे भत्तों का हकदार होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे और उसको उस उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सभी अधिकारिता, शक्तियाँ और विशेषाधिकार होंगे, किंतु उसे अन्यथा उस उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नहीं समझा जाएगा: 1 1 नवंबर, 1956। 2 संविधान (चौवनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1986 की धारा 3 द्वारा (1-4-1986 से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 14 द्वारा '' भारत के राज्यक्षेत्र में के'' शब्दों का लोप किया गया। 4 संविधान (पंद्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 5 द्वारा अंतःस्थापित। संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 14 द्वारा मूल खंड (2) का लोप किया गया। 5 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 15 द्वारा अनुच्छेद 224 के स्थान पर प्रतिस्थापित। 6 संविधान (पंद्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 6 द्वारा '' साठ वर्ष'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 7 संविधान (पंद्रहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 7 द्वारा अंतःस्थापित। (4) इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को प्रदत्त शक्ति से, अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अल्पीकरण नहीं होगा। 226क. अनुच्छेद 226 के अधीन कार्यवाहियों में केन्द्रीय विधियों की सांविधानिक वैधता पर विचार न किया जाना। संविधान (तैंतालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 8 द्वारा (13-4-78 से) निरसित। 227. सभी न्यायालयों के अधीक्षण की उच्च न्यायालय की शक्ति--(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, सभी न्यायालयों और अधिकरणों का अधीक्षण करेगा। (2) पूर्वगामी उपबंध की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उच्च न्यायालय-- (क) ऐसे न्यायालयों से विवरणी मँगा सकेगा; (ख) ऐसे न्यायालयों की पद्धति और कार्यवाहियों के विनियमन के लिए साधारण नियम और प्रारूप बना सकेगा, और निकाल सकेगा तथा विहित कर सकेगा ; और (ग) किन्हीं ऐसे न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों, प्रविष्टियों और लेखाओं के प्रारूप विहित कर सकेगा। (3) उच्च न्यायालय उन फीसों की सारणियाँ भी स्थिर कर सकेगा जो ऐसे न्यायालयों के शैरिफ को तथा सभी लिपिकों और अधिकारियों को तथा उनमें विधि-व्यवसाय करने वाले अटर्नियों, अधिवक्ताओं और लीडरों को अनुज्ञेय होंगी: परंतु खंड (2) या खंड (3) के अधीन बनाए गए कोई नियम, विहित किए गए कोई प्रारूप या स्थिर की गई कोई सारणी तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के उपबंध से असंगत नहीं होगी और इनके लिए राज्यपाल के पूर्व अनुमोदन की अपेक्षा होगी। (4) इस अनुच्छेद की कोई बात उच्च न्यायालय को सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिक रण पर अधीक्षण की शक्तियाँ देने वाली नहीं समझी जाएगी। 228. कुछ मामलों का उच्च न्यायालय को अंतरण--यदि उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में लंबित किसी मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान्‌ प्रश्न अंतर्वलित है जिसका अवधारण मामले के निपटारे के लिए आवश्यक है तो वह 6*** उस मामले को अपने पास मंगा लेगा और-- (क) मामले को स्वयं निपटा सकेगा, या (ख) उक्त विधि के प्रश्न का अवधारण कर सकेगा और उस मामले को ऐसे प्रश्न पर निर्णय की प्रतिलिपि सहित उस न्यायालय को, जिससे मामला इस प्रकार मँगा लिया गया है, लौटा सकेगा और उक्त न्यायालय उसके प्राप्त होने पर उस मामले को ऐसे निर्णय के अनुरूप निपटाने के लिए आगे कार्यवाही करेगा। 1 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 30 द्वारा (1 -8-1979 से), खंड (7) को खंड (4) के रूप में पुर्नसंख्याकित किया गया। 2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 39 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित। 3 खंड (1) संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 40 द्वारा (1-2-1977 से) और तत्पश्चात्‌ संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 31 द्वारा (20-6-1979 से ) प्रतिस्थापित होकर उपरोक्त रूप में आया। 4 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 40 द्वारा (1-2-1977 से ) खंड (5) अंतःस्थापित किया गया और उसका संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 31 द्वारा (20-6-1979 से) लोप किया गया। 5 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 41 द्वारा (1-2-1977 से) '' तो वह उस मामले को अपने पास मँगा लेगा तथा --'' के स्थान पर प्रतिस्थापित। 6 संविधान (तैंतालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 9 द्वारा (13-4-1978 से) '' अनुच्छेद 131क के उपबंधों के अधीन रहते हुए'' शब्दों, अंकों और अक्षर का लोप किया गया। 228क. राज्य विधियों की सांविधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों के निपटारे के बारे में विशेष उपबंध। -- संविधान (तैंतालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 10 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित। 229. उच्च न्यायालयों के अधिकारी और सेवक तथा व्यय--(1) किसी उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्तियाँ उस न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति करेगा या उस न्यायालय का ऐसा अन्य न्यायाधीश या अधिकारी करेगा जिसे वह निर्दिष्ट करे : परंतु उस राज्य का राज्यपाल नियम 2*** द्वारा यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसी किन्हीं दशाओं में जो नियम में विनिर्दिष्ट की जाएँ, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो पहले से ही न्यायालय से संलषन नहीं है, न्यायालय से संबंधित किसी पद पर राज्य लोक सेवा आयोग से परामर्श करके ही नियुक्त किया जाएगा, अन्यथा नहीं। (2) राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्च न्ययालय के अधिकारियों और सेवकों की सेवा की शर्तें ऐसी होंगी जो उस न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति या उस न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीश या अधिकारी द्वारा, जिसे मुख्य न्यायमूर्ति ने इस प्रयोजन के लिए नियम बनाने के लिए प्राधिकृत किया है, बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाएँ: परंतु इस खंड के अधीन बनाए गए नियमों के लिए, जहाँ तक वे वेतनों, भत्तों, छुट्टी या पेंशनों से संबंधित है, उस राज्य के राज्यपाल के 2*** अनुमोदन की अपेक्षा होगी। (3) उच्च न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, जिनके अंतर्गत उस न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों को या उनके संबंध में संदेय सभी वेतन, भत्ते और पेंशन हैं, राज्य की संचित निधि पर भारित होंगे और उस न्यायालय द्वारा ली गई फीसें और अन्य धनराशियाँ उस निधि का भाग होंगी। 230. उच्च न्यायालयों की अधिकारिता का संघ राज्यक्षेत्रों पर विस्तार--(1) संसद, विधि द्वारा, किसी संघ राज्यक्षेत्र पर किसी उच्च न्यायालय की अधिकारिता का विस्तार कर सकेगी या किसी संघ राज्यक्षेत्र से किसी उच्च न्यायालय की अधिकारिता का अपवर्जन कर सकेगी। (2) जहाँ किसी राज्य का उच्च न्यायालय किसी संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करता है, वहाँ-- (क) इस संविधान की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह उस राज्य के विधान-मंडल को उस अधिकारिता में वृद्धि, उसका निर्बंधन या उत्सादन करने के लिए सशक्त करती है; और (ख) उस राज्यक्षेत्र में अधीनस्थ न्यायालयों के लिए किन्हीं नियमों, प्ररूपों या सारणियों के संबंध में, अनुच्छेद 227 में राज्यपाल के प्रति निर्देश का, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह राष्ट्रपति के प्रति निर्देश है। 231. दो या अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय की स्थापना--(1) इस अध्याय के पूर्ववर्ती उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, संसद, विधि द्वारा, दो या अधिक राज्यों के लिए अथवा दो या अधिक राज्यों और किसी संघ राज्यक्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय स्थापित कर सकेगी। (2) किसी ऐसे उच्च न्यायालय के संबंध में, -- (क) अनुच्छेद 217 में उस राज्य के राज्यपाल के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उन सभी राज्यों के राज्यपालों के प्रति निर्देश है जिनके संबंध में वह उच्च न्यायालय अधिकारिता का प्रयोग करता है; (ख) अधीनस्थ न्यायालयों के लिए किन्हीं नियमों, प्रारूपों या सारणियों के संबंध में, अनुच्छेद 227 में राज्यपाल के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस राज्य के राज्यपाल के प्रति निर्देश है जिसमें वे अधीनस्थ न्यायालय स्थित हैं; और (ग) अनुच्छेद 219 और अनुच्छेद 229 में राज्य के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे उस राज्य के प्रति निर्देश है, जिसमें उस उच्च न्यायालय का मुख्य स्थान है: परंतु यदि ऐसा मुख्य स्थान किसी संघ राज्यक्षेत्र में है तो अनुच्छेद 219 और अनुच्छेद 229 में राज्य के, राज्यपाल, लोक सेवा आयोग, विधान-मंडल और संचित निधि के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे क्रमश: राष्ट्रपति, संघ लोक सेवा आयोग, संसद और भारत की संचित निधि के प्रति निर्देश हैं। 1 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 42 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित। 2 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा '' जिसमें उच्च न्यायालय का मुख्य स्थान है,'' शब्दों का लोप किया गया। 3 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 16 द्वारा अनुच्छेद 230, 231 और 232 के स्थान पर प्रतिस्थापित। भाग 6: राज्य: अध्याय 6- अधीनस्थ न्यायालय 233. जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति--(1) किसी राज्य में जिला न्यायाधीश नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति तथा जिला न्यायाधीश की पदस्थापना और प्रोन्नति उस राज्य का राज्यपाल ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय से परामर्श करके करेगा। (2) वह व्यक्ति, जो संघ की या राज्य की सेवा में पहले से ही नहीं है, जिला न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए केवल तभी पात्र होगा जब वह कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता या लीडर रहा है और उसकी नियुक्ति के लिए उच्च न्यायालय ने सिफारिश की है। 233क. कुछ जिला न्यायाधीशों की नियुक्तियों का और उनके द्वारा किए गए निर्णयों आदि का विधिमान्यकरण--किसी न्यायालय का काई निर्णय, डिक्री या आदेश होते हुए भी,-- (क) उस व्यक्ति की जो राज्य की न्यायिक सेवा में पहले से ही है या उस व्यक्ति की, जो कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता या लीडर रहा है, उस राज्य में जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की बाबत, और ऐसे व्यक्ति की जिला न्यायाधीश के रूप में पदस्थापना, प्रोन्नति या अंतरण की बाबत, जो संविधान (बीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1966 के प्रारंभ से पहले किसी समय अनुच्छेद 233 या अनुच्छेद 235 के उपबंधों के अनुसार न करके अन्यथा किया गया है, केवल इस तनय के कारण कि ऐसी नियुक्ति, पदस्थापना, प्रोन्नति या अंतरण उक्त उपबंधों के अनुसार नहीं किया गया था, यह नहीं समझा जाएगा कि वह अवैध या शून्य है या कभी भी अवैध या शून्य रहा था ; (ख) किसी राज्य में जिला न्यायाधीश के रूप में अनुच्छेद 233 या अनुच्छेद 235 के उपबंधों के अनुसार न करके अन्यथा नियुक्त, पदस्थापित, प्रोन्नत या अंतरित किसी व्यक्ति द्वारा या उसके समक्ष संविधान (बीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1966 के प्रारंभ से पहले प्रयुक्त अधिकारिता की, पारित किए गए या दिए गए निर्णय, डिक्री, दंडादेश या आदेश की और किए गए अन्य कार्य या कार्यवाही की बाबत, केवल इस तनय के कारण कि ऐसी नियुक्ति, पदस्थापना, प्रोन्नति या अंतरण उक्त उपबंधों के अनुसार नहीं किया गया था, यह नहीं समझा जाएगा कि वह अवैध या अधिमान्य है या कभी भी अवैध या अधिमान्य रहा था। 234. न्यायिक सेवा में जिला न्यायाधीशों से भिन्न व्यक्तियों की भर्ती--जिला न्यायाधीशों से भिन्न व्यक्तियों की किसी राज्य की न्यायिक सेवा में नियुक्ति उस राज्य के राज्यपाल द्वारा, राज्य लोक सेवा आयोग से और ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय से परामर्श करने के पश्चात्‌‌, और राज्यपाल द्वारा इस निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार की जाएगी। 235. अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण--जिला न्यायालयों और उनके अधीनस्थ न्यायालयों का नियंत्रण, जिसके अंतर्गत राज्य की न्यायिक सेवा के व्यक्तियों और जिला न्यायाधीश के पद से अवर किसी पद को धारण करने वाले व्यक्तियों की पदस्थापना, प्रोन्नति और उनको छुट्टी देना है, उच्च न्यायालय में निहित होगा, किंतु इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह ऐसे किसी व्यक्ति से उसके अपील के अधिकार को छीनती है जो उसकी सेवा की शर्तों का विनियमन करने वाली विधि के अधीन उसे है या उच्च न्यायालय को इस बात के लिए प्राधिकृत करती है कि वह उससे ऐसी विधि के अधीन विहित उसकी सेवा की शर्तों के अनुसार व्यवहार न करके अन्यथा व्यवहार करे। 236. निर्वचन--इस अध्याय में,-- (क) '' जिला न्यायाधीश'' पद के अंतर्गत नगर सिविल न्यायालय का न्यायाधीश, अपर जिला न्यायाधीश, संयुक्त जिला न्यायाधीश, सहायक जिला न्यायाधीश, लघुवाद न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट, अपर मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायाधीश, अपर सेशन न्यायाधीश और सहायक सेशन न्यायाधीश है ; 1 संविधान (बीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1966 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित। (ख) '' न्यायिक सेवा'' पद से ऐसी सेवा अभिप्रेत है जो अनन्यतः ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनी है, जिनके द्वारा जिला न्यायाधीश के पद का और जिला न्यायाधीश के पद से अवर अन्य सिविल न्यायिक पदों का भरा जाना आशयित है। 237. कुछ वर्ग या वर्गों के मजिस्ट्रेटों पर इस अध्याय के उपबंधों का लागू होना--राज्यपाल, लोक अधिसूचना द्वारा, निदेश दे सकेगा कि इस अध्याय के पूर्वगामी उपबंध और उनके अधीन बनाए गए नियम ऐसी तारीख से, जो वह इस निमित्त नियत करे, ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, जो ऐसी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किए जाएँ, राज्य में किसी वर्ग या वर्गों के मजिस्ट्रेटों के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे राज्य की न्यायिक सेवा में नियुक्त व्यक्तियों के संबंध में लागू होते हैं

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